जमींदार परिवार का एक मेधावी बालक जो युवावस्था में संघ के सम्पर्क में आता है और पूरा जीवन संघ को समर्पित कर संघ का हो जाता है। जिसकी गिनती देश के महान वैज्ञानिकों में होती थी। जिनकी योग्यता के कायल थे नोबल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक सीवी रमन। संघ में जिसने अपनी यात्रा युवा स्वयंसेवक के रूप में शुरु की और अपनी योग्यता, सामर्थ्य के बल पर वह संघ के सर्वोच्च पद तक पहुँचे वे महापुरुष कोई और नहीं संघ के चतुर्थ सरसंघचालक प्रो़ राजेंद्र सिंह थे जिन्हें प्यार से लोग रज्जू भय्या के नाम से भी जानते है।
रज्जू भय्या का जन्म 29 जनवरी, 1922 को उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जनपद स्थित ग्राम बनैल में हुआ। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से भौतिक विज्ञान में स्नातकोत्तर की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और वहीं अध्यापन कार्य करने लगे। रज्जू भैया के जीवन की सर्वाधिक चर्चित घटना है स्नातकोत्तर की परीक्षा। उनकी यह परीक्षा लेने नोबेल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक डॉ. सीवी रमन आए थे। वे रज्जू भैया की प्रतिभा से इतने प्रभावित हुए कि उन्हें बंगलौर चलकर अपने शोध कार्य में सहयोग देने का निमंत्रण दे डाला। इसके लिए डॉ रमन के सहयोगी डॉ. कृष्णन ने संघ प्रचारक बाबूराव मोघे से लंबी चर्चा की। परंतु रज्जू भैया को यह कैसे स्वीकार होता, क्योंकि उन्होंने आजीवन अविवाहित रहकर अपने जीवन का लक्ष्य मां भारती की आराधना को ही बना लिया था। उनके इस निर्णय ने उनके माता-पिता को भी स्तब्ध कर दिया था, जो घर में पुत्रवधू लाने का सपना संजो रहे थे।
रज्जू भैया अध्यापन के साथ-साथ संघकार्य को समय दे रहे थे किन्तु उनके मन में देश समाज और राष्ट्र के लिए अधिक करने की इच्छा थी इसलिए वर्ष 1966 में विश्वविद्यालय से त्यागपत्र देकर वे पूर्णत: संघ कार्य को गतिमान करने में जुट गए।

आपातकाल के दौर में रज्जू भैया प्रो. गौरव कुमार के नाम से निरंतर प्रवास करते रहे और स्वयंसेवकों द्वारा किए जा रहे सत्याग्रह को दिशा प्रदान की। उनकी इस असामान्य प्रतिभा और कुशल संगठन क्षमता के चलते उन्हें 1977 में सह सरकार्यवाह और 1978 में सरकार्यवाह जैसा महत्वपूर्ण दायित्व सौंपा गया। 9 वर्ष तक इस दायित्व का निर्वहन करते हुए रज्जू भैया ने पूरे देश का प्रवास किया। इसके बाद वह दिन भी आया जिसने प्रो. राजेन्द्र सिंह को सरसंघचालक राजेन्द्र सिंह बना दिया।
11 मार्च वर्ष 1994 को नागपुर में रेशिमबाग में तत्कालीन सरसंघचालक ने उन्हें सरसंघचालक का दायित्व सौंप दिया। एक अध्यापक और स्वयंसेवक के रूप में रज्जू भैया अपने साथियों और विद्यार्थियों में तो प्रसिद्द थे ही, किन्तु एक धनाढ्य और सम्पन्न परिवार से आने के बावजूद संघ प्रचारक की कठिन दैनिकचर्या और तपोनिष्ठ जीवन को उन्होंने जिस सरलता से आत्मसात कर लिया था वह समर्पण और त्याग संघ के प्रचारकों की विशिष्टता है। यदि किसी को भारत की त्यागमयी जीवन पद्धति का परिचय लेना हो सेवाव्रत, अनुशासन, मिलनसारिता, मितव्ययता और बौद्धिक चिंतन का संगम देखना हो तो संघ प्रचारक के जीवन को देख लीजिये। ये अपने शरीर के जीर्ण शीर्ण हो जाने तक सतत निष्ठाभाव से माँ भारती की सेवा में संलग्न रहते हैं। अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा से समाज में नवसंचार करते हैं।
रज्जू भैया भी अपने इसी दायित्व का निर्वहन रीढ़ की हड्डी में चोट के बाद भी करते रहे, शारीरिक दुर्बलता के चलते 10 मार्च, 2000 को उन्होंने श्री कुप्पहल्ली सीतारमैया सुदर्शन को सरसंघचालक का दायित्व सौंप दिया और सरसंघचालक से सामान्य कार्यकर्ता बन गए। दायित्व से निवृत्त होने के बाद रज्जू भैया पुणे के कौशिक आश्रम में रहते हुए संघ कार्य चिंतन में सक्रीय थे। 14 जुलाई, 2003 उन्होंने अपने शरीर को त्याग दिया। आज भी वे स्वयंसेवकों के लिए प्रेरणास्रोत हैं।