‘भारत सेवाश्रम संघ’ के संस्थापक स्वामी प्रणवानन्द जी का जन्म 29 जनवरी, 1896 ई. (माघ पूर्णिमा) को ग्राम बाजिदपुर, जिला फरीदपुर (वर्तमान बांग्लादेश) में हुआ था। उनके पिता विष्णुचरण दास एवं माता शारदा देवी शिवभक्त थे। सन्तान न होने पर उन्होंने शिव जी से प्रार्थना की। इस पर भोले शंकर ने उनकी माता को स्वप्न में दर्शन देकर स्वयं उनके पुत्र रूप में आने की बात कही। बुधवार को जन्म लेने के कारण उन्हें ‘बुधो’ कहा जाने लगा।
जन्म के समय बालक रोया नहीं। वह किसी की गोद में नहीं जाता था। भूख लगने पर भी चुप रहता था। सबको चिन्ता हुई कि लड़का कहीं गूंगा-बहरा तो नहीं है। वे लोग नहीं जानते थे कि इस अवस्था में भी शिशु पांच-छह घंटे ध्यान करता है। कुछ बड़े होने पर कभी-कभी वे गायब हो जाते थे और खोजने पर बाग में पेड़ के नीचे ध्यानरत मिलते। कभी-कभी वे मिट्टी का शिवलिंग बना कर उसकी पूजा करते थे। आगे चलकर उनका नाम विनोद रखा गया।
जैसे-जैसे वे बड़े होते गये, उनके ध्यान का समय भी बढ़ता गया। घर वालों ने उन्हें गांव की पाठशाला में भेज दिया। वहां भी वे ध्यानमग्न ही रहते थे। पाठशाला की पढ़ाई खत्म होने पर उन्हें एक अंग्रेजी विद्यालय में भेजा गया। वे कक्षा में सदा अन्तिम पंक्ति में बैठते थे और नाम पुकारने पर ऐसे बोलते थे, जैसे नींद से जागे हों। उन्हें शोर और शरारत पसन्द नहीं थी; पर बुद्धिमान होने के कारण वे सब बच्चों और अध्यापकों के प्रिय थे। बलिष्ठ होने के कारण खेलकूद में हर कोई उन्हें अपने दल में रखना चाहता था।
क्रान्तिकारियों से सम्पर्क के कारण उन्हें कई महीने जेल में रहना पड़ा। वे अपने विप्लवी प्राचार्य सन्तोष दत्त से प्रायः संन्यास की बात कहते थे। इस पर प्राचार्य ने उन्हें गोरखपुर के बाबा गम्भीरनाथ के पास भेजा। उन्होंने विनोद को 1913 ई. में विजयादशमी के दूसरे दिन ब्रह्मचारी की दीक्षा दी। अब तो वे घंटों तक समाधि में पड़े रहते। उनके गुरुजी ही उन्हें बुलाकर कुछ खिला देते थे। आठ महीने बाद गुरुजी के आदेश से वे काशी आये और फिर अपने घर लौट गये। उन्हें 1916 ई. में माघ पूर्णिमा को शिव तत्व की प्राप्ति हुई। इसके एक साल बाद उन्होंने गरीब, भूखों, असहाय और पीड़ितों की सहायता के लिए बाजिदपुर में आश्रम स्थापित किया। सन 1919 में बंगाल में आये भीषण चक्रवात में उन्होंने व्यापक सहायता कार्य चलाया। उनका दूसरा आश्रम मदारीपुर में बना।
एक बार वे अपने पिताजी का पिंडदान करने गये। वहां उन्होंने पंडों के वेश में कुछ अपराधी तत्वों को श्रद्धालुओं को परेशान करते देखा। उन्होंने तभी निश्चय किया कि वे तीर्थस्थलों की पवित्रता बनाये रखने का अभियान चलाएंगे। उन्होंने 1924 ई. में पौष पूर्णिमा के दिन स्वामी गोविन्दानन्द गिरि से संन्यास की दीक्षा ली। अब उनका नाम स्वामी प्रणवानन्द हो गया। उसके बाद उन्होंने गया, पुरी, काशी, प्रयाग आदि स्थानों पर संघ के आश्रमों की स्थापना की। तभी से ‘भारत सेवाश्रम संघ’ विपत्ति के समय सेवा कार्यों में जुटा हुआ है। उन्होंने समाजसेवा, तीर्थसंस्कार, धार्मिक और नैतिक आदर्श का प्रचार, गुरु पूजा के प्रति जागरूकता जैसे अनेक कार्य किये।
स्वामी प्रणवानंद जी जातिभेद को मान्यता नहीं देते थे। उन्होंने अपने आश्रमों में ‘हिन्दू मिलन मंदिर’ बनाये। इनमें जातिगत भेद को छोड़कर सब हिन्दू प्रार्थना करते थे। सबको धर्मशास्त्रों की शिक्षा दी जाती थी। इसके बाद उन्होंने ‘हिन्दू रक्षा दल’ गठित किया। इसका उद्देश्य भी जातिगत भावना से ऊपर उठकर हिन्दू युवकों को व्यायाम और शस्त्र संचालन सिखाकर संगठित करना था।
इन दिनों भारत सेवाश्रम संघ के देश-विदेश में 75 आश्रम कार्यरत हैं। आठ जनवरी, 1941 को अपना जीवन-कार्य पूरा कर उन्होंने देह त्याग दी। अब उनके बताए आदर्शों पर उनके अनुयायी संघ को चला रहे हैं।