-प्रतीक खरे

अंत्योदय एवं एकात्म मानवदर्शन के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्यायजी एक प्रखर राजनीतिज्ञ, चिंतक और विचारक के साथ-साथ एक अच्छे लेखक-पत्रकार भी थे। दीनदयालजी ने देश में उस समय राष्ट्रीय पत्रकारिता का पौधा रोंपा था, जब पत्रकारिता पर कम्युनिस्टों का प्रभुत्व था। कम्युनिस्टों के प्रभाव के कारण भारतीय विचारधारा को संचार माध्यमों में उचित स्थान नहीं मिल पा रहा था, बल्कि राष्ट्रीय विचार के प्रति नकारात्मकता का वातावरण बनाने के दुष्प्रयत्न किये जा रहे थे।

तब दीनदयालजी ने राष्ट्रीय विचार से ओत-प्रोत मासिक पत्रिका ‘राष्ट्रधर्म’, साप्ताहिक समाचारपत्र पाञ्चजन्य, ऑर्गेनाइजर और दैनिक समाचारपत्र ‘स्वदेश’ प्रारंभ कराए। उन्होंने जब विधिवत पत्रकारिता (1947 में राष्ट्रधर्म के प्रकाशन से) प्रारंभ की, तब तक पत्रकारिता मिशन मानी जाती थी। पत्रकारिता राष्ट्रीय जागरण का माध्यम थी।
कर्मयोगी दीनदयालजी कार्य करने में विश्वास रखते थे, श्रेय लेने में नहीं। यहीं कारण था कि तत्कालीन समय में उन्होंने कई पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित करायीं, लेकिन वह कभी उनके ‘प्रधान संपादक’ नहीं बने, जबकि उन पत्र-पत्रिकाओं का सारा कार्य दीनदयाल जी स्वयं देखते थे।

14 जनवरी, वर्ष 1948 को मकर संक्राति के पावन अवसर पर उन्होंने ‘पाञ्चजन्य’ प्रारंभ कराया। राष्ट्रीय विचारों के प्रहरी पाञ्चजन्य में भी उन्होंने संपादक का दायित्व नहीं संभाला। यह दायित्व उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी को सौंपा था। दीनदयालजी राष्ट्र निर्माण में समाचार पत्र-पत्रिकाओं के महत्व को समझते थे। यहीं कारण था कि राष्ट्रीय विचार को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने नवोदित लेखकों को प्रेरित कर कई पत्रिकायें प्रकाशित करायीं। कई लोग पत्रकारिता के क्षेत्र में आगे भी आए और आगे चलकर इस क्षेत्र के प्रमुख हस्ताक्षर बने।

इनमें पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी, देवेंद्र स्वरूप, महेशचंद्र शर्मा, यादवराव देशमुख, राजीव लोचन अग्निहोत्री, वचनेश त्रिपाठी, महेन्द्र कुलश्रेष्ठ, गिरीश चंद्र मिश्र आदि प्रमुख हैं। ये सब पत्रकारिता की उसी पगडंडी पर आगे बढ़े, जिसका निर्माण दीनदयालजी ने किया था।

दीनदयालजी के पत्रकारिता के क्षेत्र को देखें तो उनके पत्रकार-व्यक्तित्व पर उतना प्रकाश नहीं डाला गया है, जितना कि आदर्श पत्रकारिता में उनका योगदान है। उनको सही मायनों में राष्ट्रीय पत्रकारिता का पुरोधा कहा जा सकता है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय पत्रकारिता के पुरोधा अवश्य थे, लेकिन कभी भी संपादक या संवाददाता के रूप में उनका नाम प्रकाशित नहीं हुआ। वह जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मूर्धन्य विचारक थे, अपने कार्यकर्ताओं के लिए उस संगठन का मंत्र है कि कार्यकर्ता को ‘प्रसिद्धि परांगमुख’ होना चाहिए। अर्थात् प्रसिद्धि और श्रेय से बचना चाहिए। प्रसिद्धि और श्रेय अहंकार का कारण बन सकता है और समाज जीवन में अहंकार ध्येय से भटकाता है। अपने संगठन के इस मंत्र को दीनदयालजी ने आजन्म गाँठ बांध लिया था।

21 अक्टूबर 1951 में जब दिल्ली में भारतीय जनसंघ की स्थापना के समय इसका नेतृत्व डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने संभाला तब उन्हें एक ऊर्जावान सहयोगी की तलाश थी। उनकी तलाश दीनदयाल उपाध्याय पर जाकर ठहरी।
तब दीनदयाल उपाध्याय ने कहा था कि मुझे क्यों कीचड़ अर्थात राजनीति में डाला जा रहा है? इस पर तत्कालीन सरसंघचालक गुरु गोलवलकर ने कहा था, “जो कीचड़ में रहकर भी कमल-पत्र जैसा अलिप्त रह सकता हो, वही राजनीति के क्षेत्र में कार्य करने के योग्य होता है, और इसलिए तुम्हारा चयन किया गया है।”
ऐसे व्यक्तित्व के धनी अंत्योदय एवं एकात्म मानव दर्शन के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी को शत्-शत् नमन।

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