भारतीय संत परम्परा में अनेक संत हुए जिन्होंने राष्ट्र निर्माण के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन लगा दिया। इसी परम्परा के वाहक थे सन्त नारायण गुरु। जिन्होंने भारत में सामाजिक पुनर्जागरण के साथ-साथ केरल में सामाजिक सुधार के लिए आध्यात्मिक नींव स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके साथ ही समाज में जातिगत भेदभाव को दूर करने तथा आपसी संघर्ष के बिना सामाजिक मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने का काम किया।
नारायण गुरु का जन्म 27 अगस्त 1856 को त्रिवेंद्रम से 12 किलोमीटर दूर स्थित एक छोटे से गाँव चेम्पाझंथी में व्यालवरम नामक किसान परिवार में हुआ था।
नारायण गुरु की प्रारंभिक शिक्षा चेमपाहांथीमुथापिल्लई के आचार्यत्व में गुरुकुल पद्धति से हुई। शिक्षा ग्रहण के समय उनकी आयु मात्र 15 वर्ष थी, उसी समय उनकी माता का देहांत हो गया। 21 साल की आयु में वह संस्कृत के विद्वान रमन पिल्लई आसन से उच्चतर शैक्षिक ज्ञान सीखने के लिए त्रावणकोर चले गए। जहाँ उन्होंने वेद, उपनिषद और संस्कृत साहित्य और अलंकार शास्त्र का ज्ञान अर्जित किया।
यह वह समय था जब अस्पृश्यता का चलन था। इस दौरान नारायण गुरु अपने वैदिक ज्ञान, काव्य और मानवतावादी विचारों से सामाजिक जड़ता में परिवर्तन लाने में समर्थ रहे। उन्होंने सशक्त अहिंसक आंदोलन चलाए। नारायण गुरु के प्रयासों से समाज धार्मिक आडम्बरों और रूढ़ियों से मुक्त होने लगा।
नारायण गुरु ने केरल में आध्यात्मिक जागरण द्वारा सामाजिक सुधार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और वह भारत के जातिगत भेदभाव को दूर करने के प्रयासों को गति देने वाले सफल समाज सुधारकों में से एक बने। उन्होंने आपसी संघर्ष के बिना सामाजिक मुक्ति के लिए एक मार्ग प्रशस्त किया। नारायण गुरु अन्य समाज सुधारकों से भिन्न प्रकृति के समाज सुधारक थे, जिन्होंने सदैव समग्रता मूलक समाधान प्रस्तुत किए जिसमें उन्होने लोगों को परस्पर एक दूसरे के विरोधी या शत्रु के रूप में चिह्नित नहीं किया।
जाति भेद और छुआछूत के बारे में नारायण गुरु का मानना था कि यह समाज को तोड़ने का काम करता है अगर समाज का सम्पूर्ण विकास करना है तो उनका मानना था कि जाति के बारे में मत पूछो, मत कहो और न हीं सोचो।”
नारायण गुरु ने केरल के विभिन्न भागों में अनेक मंदिरों की स्थापना की। शेरथलाई के कलावनकोड स्थित एक मंदिर में उन्होंने देवी-देवताओं की प्रतिमा के स्थान पर दर्पण स्थापित करवाया, उनका मानना था कि भगवान हमारे-आपके भीतर हैं इसलिए हमें मानव-मानव में भेद नहीं करना चाहिए। साथ ही उन्होंने समाज को समानता का पाठ पढ़ाया।
नारायण गुरु ने वर्ष 1923 में “बहस करने और जीतने के लिए नहीं बल्कि जानने के लिए और ज्ञात करने के लिए” के विषय पर एक सम्मेलन का आयोजन किया, जो तत्कालीन भारत का इस तरह का पहला आयोजन था।
वर्ष 1925 में नारायण गुरु ने प्रसिद्ध वैकोम सत्याग्रह आंदोलन का समर्थन किया ताकि लोगों के साथ जाति के आधार पर भेदभाव न हो सके। इस आंदोलन का समर्थन महात्मा गांधी ने भी किया था और संत नारायण गुरु से भेंट भी की थी। इस अवसर पर गांधीजी ने अपनी भावना व्यक्त करते हुए कहा कि श्री नारायण गुरु जैसे सम्मानित ऋषि के दर्शन करना उनके जीवन का एक बहुत बड़ा सौभाग्य था।
नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ टैगोर ने वर्ष 1922 में नारायण गुरु से मुलाकात की थी। गुरु के साथ अपनी मुलाकात के बारे में टैगोर ने कहा था कि, “मैंने विश्व के विभिन्न हिस्सों का दौरा किया है किन्तु मैं कभी भी ऐसे व्यक्ति से नहीं मिला हूँ जो आध्यात्मिक रूप से श्री नारायण गुरु के कद से बड़ा हो।
माँ भारती की आध्यात्मिक विरासत का पोषण करने वाले महापुरुष, सामाजिक समरसता और सामाजिक पुनरुत्थान के अग्रदूत संत नारायण गुरु को कोटि-कोटि नमन है।