जन्माष्टमी का दिन, जब पूरा देश श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मना रहा था। उस दिन रात में लगभग 30-40 क्रूर ईसाई और नक्सली तत्वों नेफुलबनी के तुमुडिबंध से तीन किलोमीटर दूर स्थित जलेसपट्टा कन्याश्रम में हमला बोल दिया। 84 वर्षीय देवतातुल्य स्वामी लक्ष्मणानंद उस समय शौचालय में थे। हत्यारों ने दरवाजा तोड़कर पहले स्वामी लक्ष्मणानंद जी को गोली मारी और फिर कुल्हाड़ी से उनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। स्वामी लक्ष्मणानंद जी की गलती बस इतनी थी की उन्होंने ईसाई मिशन द्वारा वनवासी क्षेत्र में चलाए जा रहे धर्मांतरण अभियान के विरुद्ध बिगुल बजा दिया था। जिसके चलते स्वामी लक्ष्मणानंद ईसाई मिशनरियों को आँखों नहीं भा रहे थे।
विदेशियों ने सनातम धर्म और भारतीय संस्कृति को छिन्न-भिन्न करने का कई प्रयास किये। लेकिन संतों, मनीषियों ने प्राणों का बलिदान देकर उसकी रक्षा की है। इसी श्रृंखला में एक नाम आता है स्वामी लक्ष्मणानंद का।
स्वामी लक्ष्मणानंद का जन्म ओडिशा के ग्राम गुरुजंग में वर्ष 1924 में हुआ था। स्वामी लक्ष्मणानंद जी ने जीवन के 45 साल वनवासियों के बीच चिकित्सालय, विद्यालय, छात्रावास, कन्याश्रम आदि प्रकल्पों के माध्यम से सेवा कार्य करने में लगाए। गृहस्थ और दो पुत्रों के पिता होने पर भी जब स्वामी लक्ष्मणानंद जी की अध्यात्म की ज्योति जगी तो उन्होंने हिमालय में 12 वर्ष तक कठोर साधना की।
वर्ष 1966 में प्रयाग कुम्भ के समय संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्रीगुरुजी तथा अन्य कई श्रेष्ठ संतों के आग्रह पर लक्ष्मणानंद जी ने ‘नर सेवा, नारायण सेवा’को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। जिसके बाद स्वामी लक्ष्मणानंद जी ने फुलबनी में सड़क से 20 किलो मीटर दूर घने जंगलों के बीच चकापाद में अपना आश्रम बनाया। और जनसेवा में जुट गए।
स्वामी लक्ष्मणानंद जी ने भजन मंडलियों के माध्यम से अपने जनजागरुकता के कार्य को बढ़ाया और 1,000 से भी अधिक गांवों में श्रीमद्भागवत की स्थापना की। लक्ष्मणानंद जी ने हजारों किलो मीटर की पदयात्रा कर वनवासियों में हिन्दुत्व की अलख जगाई। उनके इस कार्य से प्रभावित होकर ओडिशा के राजा गजपति और पुरी के शंकराचार्यजी ने लक्ष्मणानंद जी को ‘वेदांत केसरी’ की उपाधि दी।
साल 1986 में लक्ष्मणानंद जी ने भगवान् जगन्नाथ की रथ यात्रा निकाली जो धर्म और संस्कृति जागरण के लिए युगांतकारी रही। इस रथ यात्रा के दौरान हजारों लोग हिन्दू धर्म में लौट आये। लक्ष्मणानंद जी ने नशे और सामाजिक कुरीतियों से मुक्ति हेतु जनजागरण अभियान चलाया। जिसके कारण मिशनरियों के 50 साल के षड्यंत्र पर स्वामी जी ने झाड़ू फेर दिया। लक्ष्मणानंद जी धर्म प्रचार के साथ ही सामाजिक और राष्ट्रीय सरोकारों से भी जुड़े थे। जब-जब देश पर आक्रमण हुआ या कोई प्राकृतिक आपदा आई, उन्होंने जनता को जागरूक कर सहयोग किया।
स्वामी लक्ष्मणानंद जी के इन कार्यों से चर्च समाज के लोगों को कष्ट हो रहा था, इसलिए उन पर नौ बार हमले हुए।
हत्या से कुछ दिन पूर्व ही उन्हें धमकी भरा पत्र भी मिला था। इसकी सूचना स्वामी लक्ष्मणानंद जी ने पुलिस को भी दी थी, पर पुलिस ने कुछ नहीं किया। यहां तक कि उनकी सुरक्षा को और ढीला कर दिया गया। जिसके परिणाम ये रहा कि ईसाई मिशीनरियों के दुष्ट प्रवृति को और बल मिला। 23 अगस्त 2008 को स्वामी जी की मिशनरियों द्वारा निर्मम हत्या कर दी गई ।
लेकिन स्वामी जी की बरसों की तपस्या और बलिदान व्यर्थ नहीं गया। स्वामी जी के शिष्यों और सन्तों ने हिम्मत न हारते हुए सम्पूर्ण उड़ीसा में हिन्दुत्व के ज्वार को और तीव्र करने का संकल्प लिया।