”महात्मा गांधी”, पूरा मोहनदास करमचंद गांधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 को वर्तमान गुजरात राज्य के पोरबंदर जिले के मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम करमचंद गांधी एवं उनकी माता का नाम पुतलीबाई था। वे अपने तीन भाईयों में सबसे छोटे थे। गांधी जी की मां पुतलीबाई एक साध्वी चरित्र, कोमल और धार्मिक स्वभाव की महिला थी। जिन्होंने गांधीजी के व्यक्तित्व पर बहुत गहरा प्रभाव डाला।
राजकोट में हुई प्राथमिक और उच्च शिक्षा
गांधीजी जब सात वर्ष के थे, उनका परिवार काठियावाड़ राज्य के राजकोट जिले में जाकर बस गया जहाँ उनके पिता करमचंद गांधी दीवान के पद पर नियुक्त थे। गांधीजी ने राजकोट में प्राथमिक और उच्च शिक्षा प्राप्त की। वे एक साधारण छात्र थे और स्वभाव से अत्यधिक शर्मीले एवं संकोची थे। उच्च विद्यालय से दसवीं की परीक्षा पास करने के बाद गांधीजी ने भावनगर के सामलदास महाविद्यालय में प्रवेश लिया, लेकिन उन्हें वहां का माहौल पढ़ाई के अनुकूल नहीं लगा।
इसी दौरान सन् 1885 ई० में उनके पिता का देहांत हो गया। परिवार के एक करीबी सदस्य ने उन्हें इंग्लैंड जाकर वकालत की पढाई करने का सुझाव दिया। गाँधीजी को भी यह सुझाव काफी पसंद आया। लेकिन उनकी माँ उनके इंग्लैंड जाने के विचार से सहमत नहीं थीं। हालांकि बाद में वे तब मान गई जब गाँधीजी ने वहां जाकर शराब, स्त्री एवं मांस को हाथ नहीं लगाने का वादा किया।
विदेश जाने पर रहे अडिग
जब गांधी जी इंग्लैंड जाने हेतु नाव लेने के लिए मुंबई गए, तब उनकी अपनी जाति के लोगों ने जो समुद्र पार करने को संदूषण के रूप देखते थे, उनके विदेश जाने पर अडिग रहने पर उन्हें समाज से बहिष्कृत करने की धमकी दी। लेकिन गांधीजी अड़े हुए थे और इस तरह औपचारिक रूप से उन्हें अपनी जाति से बहिष्कृत कर दिया गया। बिना विचलित हुए अठारह साल की उम्र में 4 सितम्बर, 1888 को वो साउथेम्प्टन के लिए रवाना हुए।
लंदन में जीवन
लंदन में शुरूआती कुछ दिन काफी दयनीय थे। लंदन में दूसरे वर्ष के अंत में, उनकी मुलाकात दो थियोसोफिस्ट भाइयों से हुई जिन्होनें उन्हें सर एडविन अर्नोल्ड के मिलवाया जिन्होंनें भगवद गीता का अंग्रेजी अनुवाद किया था। इस प्रकार सभी धर्मों के लिए सम्मान का रवैया और उन सबकी अच्छी बातों को समझने की इच्छा उनके दिमाग में प्रारंभिक जीवन में घर कर गयी थी।
इंग्लैंड से लौट की वकालत
इंग्लैंड में अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद गांधीजी राजकोट लौट आए एवं कुछ दिनों तक यहाँ रहने के बाद उन्होंने बम्बई में वकालत की शुरुआत करने का निर्णय लिया। हालांकि बम्बई में वे खुद को स्थापित नहीं कर सके, जिसके बाद वे राजकोट लौट आए एवं यहां फिर से उन्होंने वकालत शुरू की।
1893 में गए दक्षिण अफ्रीका
अप्रैल 1893 में गांधी दादा अब्दुल्ला एंड कंपनी से एक प्रस्ताव प्राप्त करने पर दक्षिण अफ्रीका के लिए रवाना हुए। वहां आगमन पर उन्होंने पहली बात महसूस की वो गोरों का नस्लवाद पर दमनकारी माहौल था। भारतीयों जिनमें से बड़ी संख्या में दक्षिण अफ्रीका में व्यापारियों के रूप में, गिरमिटिया मजदूरों या उनके वंशज के रूप में बसे थे, गोरों द्वारा हेय दृष्टि से देखा जाता था और कुली या सामी बुलाया जाता था। इस प्रकार एक हिंदू डॉक्टर को कुली डॉक्टर बुलाया जाता था और गांधी जी खुद को कुली बैरिस्टर बुलाते थे।
दक्षिण अफ्रीका में बापू के काम नें नाटकीय रूप से उनहें पूरी तरह से उसे बदल दिया, जहॉ उन्हें आमतौर पर काले दक्षिण अफ्रीकी और भारतीयों पर होनेवाले भेदभाव का सामना करना पड़ा।
बापू नें दक्षिण अफ्रीका में ही रहने और भारतीयों एवं अन्य लोगों के खिलाफ नस्लीय भेदभाव से लड़ने के लिए महत्वपूर्ण निर्णय लिया। इसी संघर्ष से उनका अहिंसक प्रतिरोध अपने अद्वितीय संस्करण, ‘सत्याग्रह’ के रूप में उभरा। आज, गांधी जी की एक कांस्य प्रतिमा शहर के केंद्र में चर्च स्ट्रीट पर खड़ी है।
सत्याग्रह आश्रम बनाया
गांधी जनवरी 1915 में भारत लौटे। भारत लौटने के बाद गांधीजी ने यह निर्णय किया कि पहले एक वर्ष तक वे देश के विभिन्न क्षेत्रों का भ्रमण कर लोगों की बात सुनेंगें जबकि वह खुद कुछ नहीं बोलेंगें। पूरे एक वर्ष तक देश भर में घूमने के बाद मई 1915 को गांधीजी ने अहमदाबाद से सटे साबरमती नदी के तट पर अपना एक आश्रम बनाया, जिसका नाम उन्होंने सत्याग्रह आश्रम रखा। यह गांधीजी के विभिन्न आश्रमों में से एक था। गांधीजी ने 1930 में साबरमती आश्रम से दांडी यात्रा निकाली थी जिसने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस आश्रम के महत्व को देखते हुए भारत सरकार ने इसे राष्ट्रीय स्मारक की मान्यता दी।
पहला सत्याग्रह
गांधीजी ने अपना पहला सत्याग्रह सन् 1917 ई० में बिहार के चंपारण जिले से शुरू किया। अंग्रेज़ यहां के नील बगान के मालिकों का शोषण किया करते थे।
गांधी युग की शुरुआत
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में गांधी युग की शुरुआत 1920 के असहयोग आंदोलन से हुई। भारत में असहयोग आंदोलन का मुख्य लक्ष्य ब्रिटिश सरकार के खिलाफ अहिंसक विरोध जताना एवं सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत करना था।
नमक सत्याग्रह एक ऐसा अभियान था जिसका उद्देश्य औपनिवेशिक भारत में ब्रिटिश नमक कर के खिलाफ अहिंसक विरोध प्रदर्शन करना था। इस अभियान की शुरुआत 12 मार्च 1930 को दांडी यात्रा के रूप में हुई।
5 मई 1930 को गाँधीजी को गिरफ्तार कर लिया गया एवं सरकार ने इस आंदोलन को दबाने की भरपूर कोशिश की, लेकिन सरकार को इसमें सफलता नहीं मिल पाई। अतः गाँधीजी को 26 जनवरी 1931 को मुक्त कर दिया गया।
‘भारत छोड़ो’ का दिया नारा
सन 1942 में गांधीजी ने ‘भारत छोड़ो’ का नारा दिया जो भारत में ब्रिटिश शासन के अंत का संकेत था। भारत एवं पाकिस्तान के विभाजन ने गांधीजी को झकझोर कर रख दिया।
गांधीजी की हत्या
30 जनवरी 1948 को जब गांधीजी दिल्ली स्थित बिड़ला मंदिर से अपनी संध्या प्रार्थना समाप्त कर बाहर निकल रहे थे, उसी समय नाथूराम गोडसे ने उनके सीने पर ताबड़तोड़ तीन गोलियां चलाईं। गोली लगते ही गांधीजी जमीन पर गिर पड़े। मरते वक्त उन्होंने दो शब्द बोले – हे राम! उनका अंतिम संस्कार यमुना के तट पर किया गया।
‘गांधी जयंती’
गांधीजी के जन्म दिवस को प्रत्येक वर्ष ‘गांधी जयंती’ के रूप में मनाया जाता है। भारत के लोग उन्हें प्यार से ‘बापू’ एवं ‘राष्ट्र पिता’ के नाम से पुकारते हैं। वे मानवता एवं शांति के प्रतीक हैं।