• पेशवा बाजीराव प्रथम की याद अक्सर उनकी प्रेयसी मस्तानी के सिलसिले में की जाती है और भारत के इतिहास में नए अध्याय लिखने वाले महान योद्धा के रूप में कम।
  • 20 साल की उम्र में पेशवा बनकर मराठा सत्ता की पताका को भारत में फहराने वाले महान योद्धा बाजीराव ने क़रीब… 40 युद्धों में विजय हासिल की और इस कारण उन्हें दुनिया के महानतम योद्धाओं और विजेताओं की श्रेणी में रखा जाता है।
  • भारतीय इतिहास में सुनहरे पन्ने लिखने वाले जिन महान चरित्रों की उपेक्षा हुई है, उनमें सबसे ऊपर पेशवा बाजीराव प्रथम का नाम आता है।
  • पेशवा बाजीराव के योगदान के प्रति न्याय तभी होगा, जब हम मस्तानी की रूमानी कहानी से हटकर बाजीराव की ज़िंदगी के उन अध्यायों पर नज़र डालें, जो उनके पराक्रम और राजनिष्ठा की रोमांचक और प्रेरक गाथा समेटे हुए हैं।

सत्रहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में लगभग पूरा भारत मुग़ल औरंगज़ेब के झण्डे के नीचे आ चुका था। सिर्फ़ दक्खन के मराठे ही मुग़लों से लम्बे समय तक लोहा लेकर राज क़ायम करने में सफल हुए थे।

इतिहासकारों का मानना है कि महाराष्ट्र में काफ़ी समय से ऐसे कारक विकसित हो रहे थे कि उसने वहां के निवासियों को तमाम सीमाओं के बावजूद औरंगजे़ब की ज़बर्दस्त ताक़त से लोहा लेने के लिए प्रेरित किया।

शिवाजी ने महाराष्ट्र के निवासियों की इन विशेषताओं को जोड़कर एक शक्तिपुंज का निर्माण किया और राजसत्ता प्राप्त करने का लक्ष्य बनाया। शिवाजी महाराज ने औरंगजे़ब के काल में ही एक ऐसा राज्य बना दिया, जो महाराष्ट्र के निवासियों की महत्वाकांक्षाओं का प्रतिरूप था।

उसकी जड़ें इतनी मज़बूत थीं कि 1680 में शिवाजी के निधन और 1688 में उनके पुत्र सम्भाजी की पराजय और उनकी बर्बर हत्या के बाद जब मराठों के पास न तो राजसिंहासन था, न सेना थी और न कोई राजकोश था, तब महाराष्ट्र ने छत्रपति राजाराम और फिर उनकी विधवा ताराबाई के नेतृत्व में बीस साल तक मुग़लों से संघर्ष किया।

यह संघर्ष वास्तव में एक जनयुद्ध था, जो महाराष्ट्र की पूरी जनता लड़ रही थी। इसकी अनुगूंज इतनी प्रभावशाली थी कि जैसे ही 1707 में औरंगजे़ब की आंखें मुंदी, छत्रपति शाहू और पेशवा बालाजी विश्वनाथ की जुगलबंदी में मराठा राजनीतिक सत्ता का पुनरुत्थान हुआ।

समय की करवट
नवम्बर 1718 का एक युगान्तरकारी दृश्य।
दक्खन में ज़्यादा ठंड नहीं पड़ रही थी। पेशवा बालाजी विश्वनाथ का 18 साल का बेटा बाजीराव रोमांचित था, क्योंकि वह पहली बार पिता और सेना के साथ दक्खन से हिंदुस्तान जा रहा था। तब उत्तर भारत को हिंदुस्तान कहा जाता था और वहां के वैभव के चर्चे दक्खन के लिए परीकथा के समान थे।

पेशवा बालाजी विश्वनाथ की विशाल सेना के साथ दक्खन का मुग़ल सूबेदार सैयद हुसैन अली अपनी सेना के साथ उत्तर भारत जा रहा था। दिसम्बर ख़त्म होते-होते इस विशाल सेना ने नर्मदा नदी को पार करके मालवा के मैदानों में क़दम रखा।

उपजाऊ मैदानों और बड़े शहरों का जो सिलसिला मालवा से शुरू हुआ, वह नज़ारा 16 फ़रवरी 1719 को दिल्ली पहुंचने तक बना रहा। ऐसा दृश्य बाजीराव और मराठा सैनिकों के लिए अभूतपूर्व था, क्योंकि उन्होंने तब तक महाराष्ट्र के पहाड़ी और अनुपजाऊ इलाक़े के कठिन जीवन को ही देखा था।

यात्रा की पूर्वकथा
1719 में मराठा सेना की दिल्ली यात्रा के पीछे की कहानी यह है कि दक्खन के मुग़ल सूबेदार सैयद हुसैन अली और मराठों के बीच फ़रवरी 1718 में हुई संधि में यह तय हुआ था कि मराठों को स्वराज्य के सभी क़िले मिल जाएंगे, दक्खन के 6 मुग़ल सूबों से चौथ और सरदेशमुखी मराठों को दी जाएगी और छत्रपति शाहू केे परिवार के सदस्यों को मुक्त कर दिया जाएगा।

लेकिन जब इस संधि की पुष्टि मुग़ल बादशाह फ़र्रुख़सियर ने करने से मना कर दिया तो हुसैन अली ने पेशवा बालाजी विश्वनाथ को सेना सहित अपने साथ लेकर दिल्ली जाकर बादशाह पर दबाव डालने का निश्चय किया। बालाजी विश्वनाथ के साथ सेना के अलावा पुत्र बाजीराव भी था। दोनों की संयुक्त सेनाएं 16 फ़रवरी 1719 को दिल्ली पहुंच गईं।

युवा पेशवा बाजीराव
बाजीराव ने दिल्ली में देखा कि मुग़ल बादशाह फ़र्रुख़सियर इतना शक्तिहीन था कि सैयद बंधुओं ने क़ैद करके उसकी हत्या कर दी और एक कठपुतली राजकुमार को नया बादशाह बना दिया और उस पर दबाव बनाकर बालाजी विश्वनाथ को तीन सनदें दिला दीं।

इससे मराठों को दक्खन के 6 सूबों से चौथ और सरदेशमुखी वसूल करने का अधिकार मिल गया और शिवाजी के निधन के समय के स्वराज्य पर छत्रपति शाहू के आधिपत्य को मान्यता दे दी गई, जो तब ताप्ती नदी से लेकर दक्खन में कृष्णा नदी तक विस्तृत था। दुर्भाग्य से इस घटना के एक साल के भीतर ही 2 अप्रैल 1720 को पहले पेशवा बालाजी विश्वनाथ का निधन हो गया। बालाजी विश्वनाथ अपने पीछे अपनी पत्नी राधाबाई, दो पुत्र बाजीराव और चिमनाजी तथा दो बेटियों को छोड़ गए थे।

छत्रपति शाहूजी महाराज के कहने पर बालाजी विश्वनाथ के ज्येष्ठ पुत्र बाजीराव ने अपनी कम आयु के बावजूद पेशवा पद को स्वीकार किया। उस नौजवान में ग़ज़ब का आत्मविश्वास था और दी गई जि़म्मेदारी को पूरा करने का संकल्प भी था।

बीस साल के बाजीराव के सामने कई मुश्किलें थीं। पंत प्रतिनिधि श्रीपतराव, जो बहुत महत्त्वपूर्ण अधिकारी था, बाजीराव का विरोधी था। मराठा सामंत भी अनियंत्रित थे, जो केंद्रीय सत्ता के लिए नुक़सानदायक थे।

दक्खन के मुग़ल सूबेदार का तीव्र विरोध होने के साथ ही जंजीरा के सिद्दी और गोआ के पुर्तगालियों की जलसेना मराठा राजसत्ता के रास्ते में व्यवधान थे। मराठा सामंत कान्होजी आंग्रे और कोल्हापुर में स्थित सम्भाजी छत्रपति शाहू के प्रतिद्वंदी थे। जिस मराठा संघ का निर्माण बाजीराव के पिता बालाजी विश्वनाथ ने किया था, उससे बाजीराव संतुष्ट नहीं थे। वे मराठा संघ और उसके सामंत सदस्यों को दुर्बल और महत्वहीन बनाना चाहते थे, जिससे वे स्वतंत्र सत्ता की ओर न बढ़ें।

वे चाहते थे कि मराठा संघ पर पेशवा का पूर्ण प्रभुत्व और नियंत्रण बना रहे, जिससे पेशवा की सत्ता सर्वोपरि रहे। पेशवा बाजीराव के नेतृत्व में उसके आदेशों को मानकर संघ मराठा प्रशासन के लिए काम कर सके।

इसका परिणाम यह हुआ कि मराठा राजसत्ता का केंद्र बाजीराव बन गया।

कृष्णा से अटक तक
बाजीराव को मुग़ल साम्राज्य की शोचनीय दशा का अच्छी तरह भान हो गया था और वे उसके अधिक से अधिक प्रदेश छीन लेना चाहते थे।

श्रीपतराव ने बाजीराव की योजना को अदूरदर्शितापूर्ण बताकर कोल्हापुर तथा कार्टटक पर अधिकार कर लेने पर ज़ोर दिया, लेकिन बाजीराव के इस तर्क ने सभी को प्रभावित किया कि मुग़ल साम्राज्य के सूखे पेड़ की जड़ों पर प्रहार करना चाहिए, शाखाएं तो आप से आप गिर जाएंगी।

इसके बाद तो बाजीराव हमेशा घोड़े पर सवार होकर अपनी विजयवाहिनियों के साथ उत्तर भारत में विचरण करते दिखे।

अपनी नीति के अनुसार बाजीराव ने नर्मदा नदी पार करके 1724 में मालवा जीत लिया और अपने सहयोगियों उदाजी पवार, मल्हारराव होलकर तथा राणोजी सिंधिया को कर उगाहने के लिए मालवा में छोड़कर ख़ुद पूना चले गए।

कुछ समय बाद ये लोग ही धार, इंदौर और ग्वालियर की रियासतों के संस्थापक हुए। ये तीनों रियासतें आगे दो सौ साल से ज़्यादा समय तक यानी 1948 तक क़ायम रहीं।

निज़ाम को चटाई धूल
दक्खन में पेशवा बाजीराव के सामने सबसे बड़ी बाधा निज़ामुल्मुल्क यानी निज़ाम था। निज़ाम का बाजीराव ने एकाधिक बार पराभव किया, जो मुग़ल साम्राज्य का कभी वज़ीर रहा, कभी सेनानायक और कभी सूबेदार।

छत्रपति शाहू के समय मराठों ने मुग़ल बादशाह से दक्खन के सूबों की चौथ और सरदेशमुखी वसूल करने का जो अधिकार हासिल कर लिया था, उसे निज़ाम ने चुनौती देते हुए चौथ और सरदेशमुखी देने से मना कर दिया।

पराक्रमी बाजीराव ने 1728 में पालखेड़ के प्रसिद्ध युद्ध में निज़ाम को फिर हराया, जिसका फल यह हुआ कि निज़ाम ने छत्रपति शाहू को कृष्णा नदी से उत्तर के महाराष्ट्र प्रदेश का अधिपति स्वीकार कर लिया। सिर्फ़ यही नहीं, निज़ाम ने मराठों से छीने हुए प्रदेश छोड़ देने का वादा किया और शाहूजी के चौथ तथा सरदेशमुखी कर की वसूली के अधिकार को मान लिया।

इसके दो साल बाद ही बाजीराव ने गुजरात को हस्तगत करके अपने अधिकारी गायकवाड़ को वहां नियुक्त कर दिया। इस प्रकार दक्खन और पश्चिम भारत में पेशवा बाजीराव का मराठा ध्वज फहराने लगा।

बाजीराव पेशवा ने वार्ना की संधि से कोल्हापुर के सम्भाजी की शक्ति को सीमित कर दिया। कोंकण तट पर आंग्रे, सिद्दियों और पुर्तगालियों का प्रभुत्व था, उसे ख़त्म करने का कठिन काम किया।

आंग्रे की शक्ति पर बाजीराव ने अंकुश लगाया और दुर्धर्ष सिद्दियों को भी धूल चटाकर उनके आधे परगनों पर अधिकार कर लिया। फिर कोंकण तट पर फैले पुर्तगालियों को धराशायी करके उनका आधा प्रदेश हासिल कर लिया।

पेशवा का विजय रथ
बाजीराव ने सैन्य बल, रणकौशल, सफल प्रेरणादायक नेतृत्व और राजनीतिक प्रतिभा से दक्षिण में कर्नाटक से लेकर उत्तर में दोआब और दिल्ली तक, पश्चिम में गुजरात से लेकर पूर्व में बुंदेलखण्ड तक विलक्षण विजयें प्राप्त कर उन प्रदेशों में मराठा राज और प्रभुत्व स्थापित किया।

वे अपने सैन्य बल और सामरिक सफलताओं से मराठों के आंतरिक और बाहरी शत्रुओं पर हावी हो गए। वे अपने युग के महान सेनानायक थे और सभी पेशवाओं में महानतम थे।

उनकी विजय का मूल आधार उनकी घुड़सवार सेना थी। उनकी सेना में केवल स्वावलम्बी घुड़सवार ही होते थे। मुग़ल सेना के समान नौकर-चाकर, परिवार, दुकानदार, परिवार की स्त्रियां आदि का उसमें कोई स्थान नहीं था। घुड़सवार सैनिकों के पास अपनी ज़रूरत का संक्षिप्त सामान रहता था।

अभियान के दौरान रास्ते में ही ग्रामीणों से रसद आदि प्राप्त करके सादा भोजन किया जाता था। हर घुड़सवार सैनिक के पास अतिरिक्त घोड़े होते थे। इस प्रकार बाजीराव की घुड़सवार सेना अद्भुत गतिवान होती थी। भारी-भरकम तोपों के लिए बाजीराव की सेना में कोई स्थान नहीं था।

तोपों की कमी को बाजीराव अपनी छापामार युद्ध शैली और घुड़सवार सैनिकों की गतिशीलता से पूरा करते थे। पेशवाई के बीस वर्षों में उन्होंने तीन दर्जन से अधिक युद्ध लड़े और सभी में क़ामयाबी हासिल की।

ज़ाहिर है कि पेशवा बाजीराव की ज़िंदगी का ज़्यादातर हिस्सा सैन्यशिविर के तम्बुओं में गुज़रा।

राखो बाजी लाज
अक्टूबर 1728 में बाजीराव ने अपने छोटे भाई चिमनाजी अप्पा को मुग़लों के ख़िलाफ़ मालवा भेजा। वहां अमझेरा के युद्ध में मुग़ल सूबेदार गिरधर बहादुर और उसका भाई दया बहादुर मारे गए और मालवा पर बाजीराव का अधिकार हो गया।

लगभग उन्हीं दिनों एक नई घटना हो गई, जिसका बाद के मराठा इतिहास पर ज़बर्दस्त प्रभाव पड़ा। बाजीराव से पन्ना के महाराजा छत्रसाल ने सहायता की याचना की, क्योंकि उसे बुंदेलखण्ड के जैतपुर में इलाहाबाद के सूबेदार मुहम्मद ख़ां बंगश ने घेर लिया था। छत्रसाल ने बाजीराव को पत्र लिखा-
जो गति ग्राह गजेंद्र की सो गति भई है आज,
बाजी जात बुंदेल की राखो बाजी लाज।

पत्र पाते ही बाजीराव बुंदेलखण्ड रवाना हो गए। उन्होंने बंगश को जैतपुर में बुरी तरह हराया और उससे वचन लिया कि वह कभी छत्रसाल को परेशान नहीं करेगा।

इस सहायता के बदले महाराजा छत्रसाल ने बाजीराव को राज्य का एक तिहाई हिस्सा देने का वादा किया और अपने दरबार की नर्तकी मस्तानी भी भेंट में बाजीराव को दी।

बाजीराव को बुंदेलखण्ड में छत्रसाल से जो प्रदेश मिला, उसमें कालपी, सागर, झांसी, सिरांज, कूंच, और हिरदेनगर शामिल थे। बाजीराव ने इनको अपने अधिकारी गोविंदपंत खेर के प्रबंध में सौंप दिया और 1729 में जैतपुर से पूना लौट गए।

बाजीराव और मस्तानी
मस्तानी जितनी लावण्यमयी थी, उतनी ही वीर और साहसी थी। वह घुड़सवारी और शस्त्रचालन में दक्ष थी। बाजीराव ने निवास के लिए पुणे में ‘शनिवारवाड़ा’ बनवाया था। इसी के पास उन्होंने मस्तानी भवन बनवाया।

शनिवारवाड़ा

शनिवारवाड़ा

मस्तानी बाजीराव को परामर्श देती। मस्तानी की संगति में बाजीराव ब्राह्मण होने पर भी आमिष भोजन, धूम्रपान और मद्यपान करने लगे थे, जो उस समय के कर्मकाण्डी ब्राह्मणों की जीवन पद्धति मेल नहीं खाता था।

मस्तानी बाजीराव के साथ पत्नी के समान रहती थी और एक हिंदू स्त्री जैसी ही उसकी जीवनशैली थी। लेकिन यह सब कुछ इतना आनंद से नहीं चलता रहा।

इसके एक दशक बाद वक़्त ने करवट बदली और जो हुआ वह अप्रत्याशित और अनचाहा था। इस महान योद्धा की उज्ज्वल प्रखरता के लिए मस्तानी का साहचर्य एक अनचाहा ग्रहण बन गया, जिसने बाद में सिर्फ़ बाजीराव के साथ ही देश के भाग्य को भी अपनी परछाईं में ढक लिया।

एक मुस्लिम मां की बेटी मस्तानी के प्रवेश ने बाजीराव के कट्टर अनुदार ब्राह्मण परिवार में भयानक कलह पैदा कर दी। बाजीराव की मां राधा बाई, पत्नी काशी बाई और उसके दो पुत्रों को बाजीराव और मस्तानी का साहचर्य स्वीकार नहीं हुआ।

मालवा का संघर्ष
1736 के साल ने जैसे पेशवा बाजीराव के लिए सफलता के नए द्वार खोल दिए। इस साल जयपुर के सवाई जयसिंह की सिफ़ारिश पर मुग़ल बादशाह ने बाजीराव को मालवा का नायब सूबेदार बना दिया।

बाजीराव के निवेदन पर बादशाह मुहम्मदशाह ने शाही फ़रमान द्वारा पेशवा को जागीर, सात हज़ारी मनसब और उसके वतन के सब महाल भी प्रदान किए और ख़िलअत आदि भी।

अगले साल ऐसी घटना घटी, जिसने उत्तर भारत के इतिहास में नई इबारत लिख दी। हुआ यह कि अगस्त 1737 में मुग़ल बादशाह ने निज़ाम के बेटे गाज़ीउद्दीन ख़ां को मालवा का सूबेदार बनाया। निज़ाम बाजीराव को रोकने के लिए मालवा की ओर सेना लेकर चला। दतिया और ओरछा के राजा भी निज़ाम के साथ हो लिए।

दिसम्बर 1737 में निज़ाम सिराेंज पहुंच गया। ज्याें ही बाजीराव ने निज़ाम की मालवा पर चढ़ाई का विवरण सुना, वह भी 80 हज़ार घुड़सवारों की सेना के साथ मालवा की ओर बढ़े। पुनासा से उन्होंने नर्मदा नदी पार की और भोपाल की ओर बढ़े। इधर सयाजी गायकवाड़ और राणोजी सिंधिया भी आ गए।

बाजीराव के इस अभियान की जानकारी पाते ही निज़ाम ने अपना भारी सामान रायसेन के क़िले में भेज दिया और 13 दिसम्बर 1737 को भोपाल पहुंच गया।

मराठों पर हमला करने के बजाय निज़ाम क़िले के पास ही एक ऐसे स्थान पर मोर्चाबंदी करने लगा, जहां उसकी सेना के पीछे तालाब था और सामने एक नाला था।

भोपाल का युद्ध
14 तारीख़ को युद्ध हुआ। निज़ाम ने मुग़ल सेना के राजपूत सैनिकों को भेजा और तोपख़ाना भी। दोनों पक्षों का नुक़सान हुआ, लेकिन फिर निज़ाम ने अपनी सेना बुलवा ली और दोनों पक्ष आमने-सामने डट गए।

निज़ाम दिल्ली से सहायता की उम्मीद कर रहा था लेकिन उसे निराश होना पड़ा। इस बीच मराठों ने उसकी सेना को घेर लिया और तब निज़ाम की सेना में भुखमरी फैल गई। कोई रास्ता न देखकर निज़ाम ने बाजीराव के पास समझौते का प्रस्ताव भेजा।

जब कोई हल न निकला, तब निज़ाम दिल्ली की ओर रवाना हो गया। अब मराठों ने मुग़ल सेना का पीछा किया और उस तक रसद को पहुंचने से रोकना शुरू कर दिया। इससे मुग़ल शिविर का अनाज ख़ूब महंगा हो गया। 5 जनवरी को तो मुग़लों ने तोपें खींचने वाले बैलों को मारकर अपनी भूख मिटाई, लेकिन राजपूत सैनिक तो भूखे ही रहे।

अब निज़ाम ने संधि की पेशकश की, जिसे बाजीराव पेशवा ने अपनी शर्तों पर स्वीकार कर लिया। संधि की ख़ास बातों में ये शामिल थीं कि सारा मालवा पेशवा को दिया जाएगा, नर्मदा और चम्बल के बीच का प्रदेश भी पेशवा का होगा। दोराहा सराय में यह समझौता हुआ और निज़ाम दिल्ली रवाना हो गया।

बाजीराव पेशवा द्वारा मुग़ल सेनापति निज़ामुल्मुल्क की भोपाल में 7 जनवरी 1738 की दारुण पराजय को मराठा इतिहास का सर्वोच्च बिंदु माना जाता है। क़रार पर स्वयं निज़ामुल्मुल्क के हस्ताक्षर होते ही बाजीराव ने भोपाल के फ़तेहगढ़ क़िले की घेराबंदी उठा ली और फौज़ियों के लिए तुरंत खान-पान का सामान भिजवाया।

वीर साहसी सेनानायक
बाजीराव पेशवा द्वारा पराजित मुग़ल सेनापति निज़ामुल्मुल्क के दिल्ली की ओर कूच करने के बाद पेशवा ने उन राजाओं को सबक़ सिखाने की ठानी, जिन्होंने बाजीराव के विरुद्ध निज़ामुल्मुल्क का साथ दिया था।

निज़ामुल्मुल्क की पराजय से सहमे हुए भोपाल के नवाब यार मोहम्मद ख़ान से बाजीराव ने तीन साल का क़रार किया, जिसमें बाजीराव को हर साल 69414 रुपए और महाल के ख़र्च के लिए 3000 रुपए अतिरिक्त राशि देना मंज़ूर किया।

इस क़रार के उल्लंघन के कारण 1746 में भोपाल के तत्कालीन नवाब फ़ैज़ मोहम्मद ख़ान को अपना आधा राज्य अर्थात आष्टा, भिलसा, देवीपुरा, दुराहा, सिहोर, इच्छावर तथा शुजालपुर बाजीराव पेशवा के उत्तराधिकारी बालाजी बाजीराव पेशवा को सौंपने पड़े।

पूना में परिवार विद्राेह
बाजीराव का डंका बज रहा था और सब कुछ इच्छानुसार हो रहा था। जब बाजीराव की मां राधाबाई ने मस्तानी के प्रति बाजीराव के सम्मोहन को लेकर छत्रपति शाहू से शिक़ायत की तो शाहूजी ने साफ़ कहा था- ‘यह बाजीराव का निजी मामला है और जब तक इसकी वजह से मराठा साम्राज्य या मराठा हितों को नुक़सान नहीं पहुंचता, तब तक वे हस्तक्षेप नहीं करेंगे।’

बाजीराव के विरुद्ध माहौल इतना ख़राब हो गया कि जब रघुनाथराव का यज्ञोपवीत और सदाशिवराव के विवाह का समय आया, तब ब्राह्मण पुरोहितों ने बाजीराव की उपस्थिति में इन संस्कारों को सम्पन्न करने से मना कर दिया।

दर्जनों युद्ध का विजयी और मराठा साम्राज्य के प्रति समर्पित यह महान योद्धा पारिवारिक मामलों में ख़ुद को असहाय पा रहा था।

मस्तानी महल

मस्तानी महल

मराठा सूर्य का अवसान
बाजीराव परिवार की उपेक्षा और मस्तानी के वियोग को सहन नहीं कर सके। उनके तेज़ी से गिरते हुए स्वास्थ्य से पूरा परिवार चिंतित हो उठा। अंत में मस्तानी को क़ैद में ही ख़त्म कर देने की योजना बनाई जाने लगी।

26 जनवरी को मस्तानी को पूना के पार्वती बाग़ में बंदी बना लिया गया। जब यह घटनाचक्र चल रहा था, तब बाजीराव पेशवा निज़ाम के बेटे नासिरजंग को गोदावरी नदी के पास युद्ध में नेस्तनाबूद कर रहे थे। इस दौरान मस्तानी के बंदी बनाए जाने की ख़बर ने उनका हृदय विदीर्ण कर दिया और मस्तानी को मुक्त न कर पाने की अपनी बेचारगी के चलते उनका स्वास्थ्य बड़ी ही तेज़ी से फिर गिरने लगा।

वे 5 अप्रैल से खरगोन जि़ले में सनावद के पास नर्मदा नदी के तट पर रावेरखेड़ी में शिविर में थे। 28 अप्रैल को उनकी तबीयत ज़्यादा ख़राब हो गई और उसी दिन 40 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।

बीस साल तक जो बाजीराव अधिकतर समय घोड़े की पीठ पर रहे या फिर सैनिक शिविरों में रहे, उनका निधन भी राजमहल में नहीं, सैनिक शिविर में ही हुआ। बाजीराव पेशवा का अवसान उभरते हुए मराठा साम्राज्य का ही नहीं, समग्र भारतीय अस्मिता पर भी आघात था।

बाजीराव के निधन का समाचार पूना पहुंचते ही मस्तानी ने भी देह त्याग दी। पूना से 20 मील दूर पाबल नामक छोटे-से ग्राम में उसे दफ़ना दिया गया, जो कि उसकी जागीर थी।

बाजीराव की समाधि

बाजीराव ने जिस स्थान पर अंतिम सांस ली, वहीं उनका समाधि-स्थल है और कुछ दूर नदी तट पर जहां उनका दाह-संस्कार हुआ था, वहां वेदिका बनी हुई है।

रावेरखेड़ी में बाजीराव पेशवा की स्मृति में ‘वृंदावन’ निर्मित करने लिए नानासाहब पेशवा ने राणोजी शिंदे को नवम्बर 1740 में आदेश दिया था।

इस समाधि-स्थल की गरिमा एवं पवित्रता बनाए रखने के लिए निरंतर अग्निहोत्र के लिए नाशिक-निवासी वेदमूर्ति दिगम्बरभट को दस शिष्यों के साथ समाधि-स्थल पर रहने के आदेश भी नाना साहेब पेशवा ने जनवरी 1751 में दिए थे।

बाजीराव पेशवा (प्रथम) के इस समाधि-स्थल पर उनकी पुण्यतिथि मनाने का सिलसिला 1926 में सुप्रसिद्ध इतिहासकार यादव माधव काले की अध्यक्षता में शुरू हुआ था। बाजीराव की अंतरंग कामना थी कि मराठों की सत्ता भारतीय उपमहाद्वीप में अरब सागर से बंगाल की खाड़ी तक विस्तारित हो।

बाजीराव-मस्तानी के वंशज
जहां तक बाजीराव-मस्तानी के वंशजों का प्रश्न है, वे अंत तक मराठा साम्राज्य और मराठा अस्मिता की रक्षा के लिए अपना रक्त बहाते रहे।

1761 के पानीपत के तीसरे युद्ध में बाजीराव का बेटा शमशेर बहादुर मारा गया। तब वह सिर्फ़ 27 साल का था और उसका बेटा अलीबहादुर सिर्फ़ तीन साल का था।

अलीबहादुर ने अपनी बहादुरी से बांदा को जीतकर वहां रियासत क़ायम की। 1857 के महासंग्राम के समय नाना साहब पेशवा के भाई राव साहब के आग्रह पर बांदा का नवाब अलीबहादुर द्वितीय भी शामिल हुआ।

महासंग्राम समाप्त होने के बाद उसकी बांदा रियासत ज़ब्त कर ली गई। ख़ज़ाने का धन और बेगमों के ज़ेवर ज़ब्त कर लिए गए और अलीबहादुर द्वितीय को एक छोटी-सी पेंशन देकर इंदौर निर्वासित कर दिया गया।

आज भी इंदौर में अलीबहादुर द्वितीय के वंशज विपन्नावस्था में दिन गुज़ार रहे हैं। ये कहानी है बाजीराव की मस्तानी की और उसकी संतानों की।

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