संत-कवि कबीर दास का जन्म 15वीं शताब्दी के मध्य में काशी (वाराणसी, उत्तर प्रदेश) में हुआ था। कबीर के जीवन के विवरण कुछ अनिश्चित हैं। उनके जीवन के बारे में अलग-अलग विचार, विपरीत तथ्य और कई कथाएँ हैं। यहाँ तक कि उनके जीवन पर बात करने वाले स्रोत भी अपर्याप्त हैं। शुरुआती स्रोतों में ‘बीजक’ और ‘आदि ग्रंथ’ शामिल हैं। इसके अलावा, भक्त मल द्वारा रचित ‘नाभाजी’, मोहसिन फ़ानी द्वारा रचित ‘दबिस्तान-ए-तवारीख’, और ‘खज़ीनत उल-असफ़िया’ हैं।

ऐसा कहा जाता है कि कबीर की माँ ने उनके जन्म के समय बड़े चमत्कारिक ढंग से गर्भ धारण किया था। उनकी माँ एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण विधवा थीं, जो अपने पिता के साथ एक प्रसिद्ध तपस्वी के निवास पर तीर्थ यात्रा करने गई थीं। उनकी निष्ठा से प्रभावित होकर, तपस्वी ने उन्हें आशीर्वाद दिया और उनसे कहा कि वे जल्द ही एक बेटे को जन्म देंगी। बेटे का जन्म होने के बाद, बदनामी से बचने के लिए (क्योंकि उनकी शादी नहीं हुई थी), कबीर की माँ ने उनका परित्याग कर दिया। छोटे से कबीर को एक मुसलमान बुनकर की पत्नी, नीमा, ने गोद ले लिया। कथाओं के एक अन्य संस्करण में, तपस्वी ने उनकी माँ को आश्वासन दिया था कि जन्म असामान्य तरीके से होगा और इसलिए, कबीर का जन्म अपनी माँ की हथेली से हुआ था! इस कहानी में भी, उन्हें बाद में उसी नीमा द्वारा गोद ले लिया गया था।

जब लोग बच्चे के बारे में नीमा पर संदेह और प्रश्न करने लगे, तब चमत्कारी ढंग से जन्में नवजात शिशु ने अपनी दृढ़ आवाज़ में कहा, “मैं एक महिला से पैदा नहीं हुआ था बल्कि एक लड़के के रूप में प्रकट हुआ हूँ … मुझमें ना तो हड्डियाँ हैं, ना खून, ना त्वचा है। मैं तो मानव जाति के लिए शब्द प्रकट करता हूँ। मैं सर्वश्रेठ प्राणी हूँ …”

कबीर की और बाईबल की कहानियों में समानताएँ देखी जा सकती हैं। इन दंतकथाओं की सत्यता पर प्रश्न उठाना निरर्थक होगा। हमें तो फिर दंतकथाओं की अवधारणा पर ही विचार करना पड़ेगा। कल्पनाएँ और मिथक सामान्य जीवन की विशेषता नहीं हैं। साधारण मनुष्य का जीवन तो भुला दिया जाता है। आलंकारिक दंतकथाएँ और अलौकिक कृत्य असाधारण जीवन से जुड़े होते हैं। भले ही कबीर का जन्म सामान्य रूप से ना हुआ हो, लेकिन इन दंतकथाओ से पता चलता है कि वे एक असाधारण और महत्वपूर्ण व्यक्ति थे।

उनके समय के मानकों के अनुसार, ‘कबीर’ एक असामान्य नाम था। ऐसा कहा जाता है कि उनका नाम एक काज़ी ने रखा था जिन्होंने उनके लिए एक नाम खोजने के लिए कई बार क़ुरान खोली और हर बार ‘कबीर’ अर्थात ‘महान’ शब्द पर उनकी खोज समाप्त हुई, जो ईश्वर, स्वयं अल्लाह के अलावा और किसी के लिए उपयोग नहीं किया जाता है।

कबीरा तू ही कबीरू तू तोरे नाम कबीर

राम रतन तब पाइये जद पहिले तजहि सरीर

आप महान हैं, आप वही हैं, आपका नाम कबीर है,

रत्न स्वरूप राम तभी प्राप्त होते हैं जब शारीरिक मोह त्याग दिया जाता है।

अपनी कविताओं में कबीर ने खुद को जुलाहा और कोरी कहा है। दोनों शब्दों का अर्थ ‘बुनकर’ है, जो एक निचली जाति थी। उन्होंने खुद को पूरी तरह से हिंदुओं या मुसलमानों के साथ नहीं जोड़ा।

जोगी गोरख गोरख करै, हिंद राम न उखराई

मुसलमान कहे इक खुदाई, कबीरा को स्वामी घट घट रहियो समाई।

(जोगी गोरख गोरख कहते हैं, हिंदू राम का नाम जपते हैं,

मुसलमान कहते हैं कि एक अल्लाह ही है, लेकिन कबीर का भगवान हर जगह व्याप्त है।)

कबीर जी ने कोई औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं की थी। उन्हें एक बुनकर के रूप में प्रशिक्षित भी नहीं किया गया था। उनकी कविताएँ बुनाई से जुड़े रूपकों से भरी हुई हैं, परंतु उनका मन पूरी तरह से इस पेशे में नहीं लगता था। उनका जीवन सत्य की खोज की आध्यात्मिक यात्रा थी, जो उनकी कविताओं में स्पष्ट रूप से प्रकट होती है।

ताना बुनना सबहु तज्यो है कबीर,

हरि का नाम लिखी लियो सरीर

अपनी आध्यात्मिक खोज को पूर्ण करने हेतु, वे वाराणसी में प्रसिद्ध संत रामानंद के शिष्य बनना चाहते थे। कबीर ने महसूस किया कि अगर वे किसी तरह से अपने गुरु के गुप्त मंत्र को जान लेंगे, तो उनकी दीक्षा हो सकेगी। संत रामानंद वाराणसी में नियमित रूप से एक निश्चित घाट पर जाते थे। एक दिन जब कबीर ने उन्हें घाट के पास आते देखा, तो वे घाट की सीढ़ियों पर लेट गए और रामानंदजी का पैर उनपर पड़ा, और उनके मूँह से अनायास ही ‘राम’ शब्द निकल पड़ा। कबीर को मंत्र मिल गया और उन्हें बाद में संत द्वारा एक शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया गया। ‘ख़जीनत अल-असफ़िया’ से हमें पता चलता है कि एक सूफ़ी पीर, शेख तक्की, भी कबीर के शिक्षक थे। कबीर के शिक्षण और तत्वज्ञान में सूफ़ी प्रभाव भी काफी स्पष्ट है।

वाराणसी में कबीर चौरा नाम का एक इलाका है, और ऐसा माना जाता है कि वे वहीं बड़े हुए थे।

कबीर ने बाद में लोई नामक एक महिला से शादी की और उनके दो बच्चे हुए, एक बेटा, कमल और एक बेटी कमली थी। कुछ स्रोतों से यह सुझाव भी मिलता है कि उन्होंने दो बार शादी की थी या उन्होंने शादी ही नहीं की थी। जबकि हमारे पास उनके जीवन के बारे में इन तथ्यों को स्थापित करने के साधन नहीं है, हम उनकी कविताओं के माध्यम से उनके द्वारा प्रचारित दर्शन में अंतर्दृष्टि प्राप्त कर सकते हैं।

कबीर का आध्यात्मिकता से गहरा संबंध था। मोहसिन फ़ानी की ‘दबिस्तान’ और अबुल फ़ज़ल की ‘आइन-ए-अकबरी’ में, उन्हे ‘मुहाविद’ बताया गया है, यानी एक ईश्वर में विश्वास रखने वाला। प्रभाकर माचवे की पुस्तक ‘कबीर’ की प्रस्तावना में प्रो. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने बताया है कि कबीर राम के भक्त थे, लेकिन विष्णु के अवतार के रूप में नहीं। उनके लिए, राम किसी भी व्यक्तिगत रूप या गुण से परे हैं। कबीर का अंतिम लक्ष्य एक परम ईश्वर को प्राप्त करना था जो बिना किसी गुण के निराकार है, जो समय और स्थान से परे है, और जो कारण-कार्य-संबंध से भी परे है। कबीर का ईश्वर ज्ञान है, आनंद है। उनके लिए ईश्वर शब्द है।

जाके मुँह माथा नहिं

नहिं रूपक रप

फूप वास ते पतला

ऐसा तात अनूप।

(जो चेहरे या माथे या प्रतीकात्मक रूप के बिना है, फूल की सुगंध की तुलना में सूक्ष्म है, ऐसा अनोखा उसका सार है।)

ऐसा प्रतीत होता है कि कबीर उपनिषद-संबंधी अद्वैतवाद और इस्लामी एकत्ववाद से गहराई से प्रभावित थे । उन्हें वैष्णव भक्ति परंपरा द्वारा भी प्रेरणा मिली थी, जिसमें भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण पर ज़ोर दिया जाता है।

उन्होंने जाति के आधार पर भेद स्वीकार नहीं किया। एक कहानी यह है कि एक दिन जब कुछ ब्राह्मण लोग अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिए गंगा के पवित्र जल में डुबकी लगा रहे थे, तब कबीर ने अपने लकड़ी के पात्र को नदी के पानी से भरा और उन लोगों को पीने के लिए दिया। वे लोग निचली जाति के व्यक्ति द्वारा पानी दिए जाने पर बहुत नाराज़ हुए, जिसके उत्तर में कबीर ने कहा, “अगर गंगा जल मेरे पात्र को शुद्ध नहीं कर सकता है, तो मैं कैसे विश्वास कर सकता हूँ कि यह मेरे पापों को धो सकता है।”

केवल जाति ही नहीं, कबीर ने मूर्ति पूजा के विरुद्ध भी बात की है और हिंदू तथा मुसलमानों, दोनों, के उन संस्कारों, रीति-रिवाजों और प्रथाओ की आलोचना की जो उनकी दृष्टि मे व्यर्थ थे। उन्होंने उपदेश दिया कि संपूर्ण श्रद्धा से ही ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है।

लोग ऐसे बावरे, पाहन पूजन जाई

घर की चाकिया काहे न पूजे जेही का पीसा खाई

(लोग ऐसे मूर्ख हैं कि वे पत्थरों की पूजा करने जाते हैं, वे उस चक्की (पत्थर) की पूजा क्यों नहीं करते जो उनके लिए खाने के लिए आटा पीसती है।)

उनकी कविता में ये सारे विचार उभरकर आते हैं। उनके आध्यात्मिक अनुभव और उनकी कविताओं को अलग नहीं किया जा सकता है। वास्तव में, वे सचेत रूप से अपनी कविताएँ नहीं लिखते थे। यह उनकी आध्यात्मिक खोज, उनका परमानंद और पीड़ा थी जिसे उन्होंने अपनी कविताओं में व्यक्त किया है। कबीर हर तरह से एक असाधारण कवि हैं। 15वीं शताब्दी में, जब फ़ारसी और संस्कृत प्रमुख उत्तर भारतीय भाषाएँ थीं, तब उन्होंने बोलचाल वाली, क्षेत्रीय भाषा में लिखने का चयन किया। केवल एक ही नहीं, उनके काव्य में हिंदी, खड़ी बोली, पंजाबी, भोजपुरी, उर्दू, फ़ारसी और मारवाड़ी जैसी भाषाओं का मिश्रण है।

भले ही कबीर के जीवन के बारे में विवरण बहुत कम मिलते हैं, लेकिन उनकी कविताएँ आज भी मौजूद हैं। वे एक ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्हें उनकी कविताओं के लिए और उनके द्वारा जाना जाता है। कबीर एक साधारण व्यक्ति थे और उनकी कविताओं का सदियों से मौजूद रहना, उनकी कविताओं की महानता का प्रमाण है। मौखिक रूप से प्रसारित होने के बावजूद, कबीर की कविताएँ आज भी अपनी सरल भाषा और आध्यात्मिक विचार और अनुभव की गहराई के कारण जानी जाती हैं। उनकी मृत्यु के कई वर्षों बाद, उनकी कविताएँ लिखी गईं थीं। उन्होंने दो पंक्ति वाले दोहे और लंबे पद (गीत) लिखे जिन्हें संगीतबद्ध किया गया। कबीर की कविताओं को एक सरल भाषा में लिखा गया है, फिर भी उनकी व्याख्या करना मुश्किल है क्योंकि उनमें कई जटिल प्रतीकवाद मौजूद हैं। हम उनकी कविताओं में कोई भी मानकीकृत रूप या छंद (मीटर) नहीं पाते हैं।

माटी कहे कुम्हार से तू क्यों रौंदे मोहे

एक दिन ऐसा आयेगा मैं रौंदूंगी तोहे

(मिट्टी कुम्हार से कहती है, तुम मुझे क्यों रोंदते हो, एक दिन आएगा जब मैं तुम्हें (मृत्यु के बाद) रौंदूँगी।)

कबीर जी की शिक्षाओं ने कई व्यक्तियों और समूहों को आध्यात्मिक रूप से प्रभावित किया। गुरु नानकजी, दादू पंथ की स्थापना करने वाले अहमदाबाद के दादू, सतनामी संप्रदाय की शुरुआत करने वाले अवध के जीवान दास, उनमें से कुछ हैं जो अपने आध्यात्मिक मार्गदर्शन में कबीर दास को उद्धृत करते हैं। अनुयायियों का सबसे बड़ा समूह कबीर पंथ के लोग हैं, जो उन्हें मोक्ष की ओर मार्गदर्शन करने वाला गुरु मानते हैं। कबीर पंथ अलग धर्म नहीं बल्कि आध्यात्मिक दर्शन है।

कबीर ने अपने जीवन में व्यापक रूप से यात्रा की थी। उन्होंने लंबा जीवन जिया। सूत्र बताते हैं कि अंत में उनका शरीर इतना दुर्बल हो गया था कि वे राम की भक्ति में संगीत नहीं बजा पाते थे। अपने जीवन के अंतिम क्षणों के दौरान, वे मगहर शहर (उत्तर प्रदेश) चले गए थे। एक किंवदंती के अनुसार, उनकी मृत्यु के बाद, हिंदू और मुसलमानों के बीच संघर्ष हुआ। हिंदू उनके शरीर का दाह संस्कार करना चाहते थे जबकि मुसलमान उन्हें दफ़नाना चाहते थे। उसी क्षण एक चमत्कार हुआ और उनके कफ़न के नीचे फूल दिखाई दिए, जिनमें से आधे काशी में जलाए गए और आधे मगहर में दफन किए गए। निश्चित रूप से, कबीर दास की मृत्यु मगहर में ही हुई थी जहाँ उनकी कब्र स्थित है।

मैंने बनारस छोड़ दिया है, और मेरि बुद्धि अल्प हो गई है,

मेरा पूरा जीवन शिवपुरी में खो गया, और मृत्यु के समय मैं उठकर मगहर आया हूँ।

हे मेरे राजा, मैं एक बैरागी और योगी हूँ।

मरते समय, मैं ना तो दुखी हूँ, और ना ही मैं तुझ से अलग हूँ।

मन और श्वास जलपात्र हैं, सारंगी सदा ही तैयार रहती है,

डोरी पक्की हो गई है, टूटती नहीं है, सारंगी से आवाज़ नहीं आती है।

गाओ, गाओ, हे दुल्हन, आशीर्वाद का एक सुंदर गीत गाओ,

राजा राम, मेरे पति, मेरे घर आए हैं।

By pratik khare

पत्रकार प्रतीक खरे झक्कास खबर के संस्थापक सदस्य है। ये पिछले 8 वर्ष से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हैं। इन्होंने कई समाचार पत्र, पत्रिकाओं के साथ - साथ समाचार एजेंसी में भी अपनी सेवाएं दी है। सामाजिक मुद्दों को उठाना उन्हें पसंद है।

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