नवंबर का महीना, 17 हजार फुट की ऊंचाई। चारों ओर बर्फ की सफेद चादर। लेह-लद्दाख की कंपा देने वाली ठंड। सुबह का समय। सीमित हथियार और बेहद कम संख्या में भारतीय जवान। दुश्मन सेना के करीब दो हजार जवानों का तीखा हमला होता है। बहादुर भारतीय जवानों की टुकड़ी दुश्मन सेना को मार भगाती है। दुश्मन के सैकड़ों जवान मारे जाते हैं। लाशों से मैदान भर जाता है। जिधर नजर जाए उधर लाशें ही लाशें। भारतीय जवान कामयाबी पर खुश थे, लेकिन जब तक वे कुछ समझ पाते, संभल पाते, फिर एक बड़ा हमला हो गया। इस बार भी लड़े और लेकिन भारत को भी बड़ा नुकसान हुआ। 61 साल पहले आज के ही दिन यानी 18 नवंबर 1962 को यह सब कुछ हुआ था। इस युद्ध में सबसे बड़ी भूमिका निभाई मेजर शैतान सिंह ने आइए जानते हैं उनसे जुड़े कुछ दिलचस्प किस्से।
सामने थी चीन की भारी-भरकम सेना और उनसे लड़ रहे थे हमारे बमुश्किल सवा सौ जवान। यहां जवानों का नेतृत्व कर रहे थे मेजर शैतान सिंह भाटी, जिनका नाम सुनकर भारतीय सेना के जवान-अफसर गर्व से भर जाते हैं। चीनी सेना के जवान-अफसर उनका नाम यादकर आज भी थर-थर कांपते हैं। वे भारतीय सैनिकों की प्रेरणा हैं। इस युद्ध में खुद मेजर शहीद हो गए थे। बड़ी संख्या में जवान भी शहीद हुए थे। करीब तीन महीने बाद उनका शव तब मिला जब बर्फ पिघली और सर्च ऑपरेशन शुरू किया जा सका।
मिला मरणोपरांत परमवीर चक्र
सेना और रेडक्रॉस के सदस्यों ने स्थानीय गड़रियों की मदद से यह सर्च पूरी की। मैदानी इलाकों में रहने वाले जो लोग थोड़ी सी बर्फ देख खुश होते हैं, उनके लिए जानना जरूरी है कि भारतीय सेना के जवान माइनस 10-20 डिग्री तापमान में सरहदों की रक्षा करते हैं। वहां 10-20-25 फुट बर्फ जम जाना आम है। सेना के अफसर-जवान भौचक रह गए, जब उन्होंने मेजर शैतान सिंह भाटी को देखा। उन्हें गोली लगी थी। दुनिया में नहीं थे लेकिन मुद्रा ऐसी जैसे अभी बोल पड़ेंगे या दुश्मन को देखकर टूट पड़ेंगे। बंदूक हाथ से नहीं छूटी थी।
इस हमले में भारतीय सेना के 109 जवान शहीद हुए थे। कुछ को चीनी सेना ने बंदी बना लिया था, लेकिन चीनी सेना को बहुत बड़ा नुकसान हुआ था। वीरों की धरती राजस्थान की धरा पर जन्म लेने वाले मेजर शैतान सिंह के नेतृत्व में कुमायूं रेजीमेंट की एक छोटी सी टुकड़ी ने 13 सौ चीनी सैनिकों को हमेशा के लिए सुला दिया था। भारत सरकार ने अगले साल मेजर शैतान सिंह भाटी की बहादुरी का सम्मान किया और उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र दिया गया।
आदेश के बाद भी नहीं हटे मेजर
हालात कठिन थे। चीनी सेना की आहट पाकर मेजर ने अपने आला अफसरों को संपर्क साधा और मदद की गुहार लगाई। उन्हें निर्देश मिल कि वे अपनी चौकी से पीछे हट जाएं क्योंकि अभी मदद नहीं भेजी जा सकती। तब भी मेजर ने धैर्य नहीं खोया। यूनिट के सभी जवानों से बातचीत की। ऊपर का आदेश भी उन्हें बताया और अपनी बात भी कही। मेजर ने कहा कि चौकी से पीछे हटने का मतलब हुआ हार मान लेना लेकिन ऊपर से हुकम है। आपमें से जो चाहें वे वापस लौट सकते हैं, लेकिन मैं नहीं जा रहा। अगर आप में से जो लोग लौटना चाहें जा सकते हैं। वीरों ने फैसला किया कि वे भले शहीद हो जाएं लेकिन चौकी नहीं छोड़ेंगे और हर हाल में दुश्मन का सामना करेंगे।
दुश्मनों से झांसे में नहीं आए जवान
चूंकि भारतीय सेना की इस टुकड़ी के पास गोली-बारूद कम थे तो मेजर ने सैनिकों को निर्देश दिया कि वे एक भी गोली यूं ही न बर्बाद करें। फायर जब भी करें गोली दुश्मन के सीने में जाकर लगे। इसके लिए जरूरी है कि दुश्मन के करीब आने का इंतजार हो। दुश्मन ने भी खूब छकाया। भोर में अचानक भारतीय जवानों ने देखा कि टुकड़ों में रोशनी उनकी ओर बढ़ रही है। उन्हें समझने में देर नहीं लगी कि यह लालटेन है, जो भेड़ों के गले में लटकी है। इससे दुश्मन भ्रम पैदा करना चाहता था, लेकिन उसके झांसे में कोई भी जवान नहीं आया और एक-एक भारतीय गोली ने दुश्मन का सीना छलनी किया। चीन के इतिहास में यह लड़ाई दर्ज है। बड़े नुकसान के रूप में इसे चीनी सेना ने देखा था।
स्थापित है मेजर की प्रतिमा
मेजर की जन्मभूमि राजस्थान के जोधपुर स्थित पावटा चौराहे पर उनकी प्रतिमा स्थापित की गई है, जहां हर साल सेना और नागरिक प्रशासन के लोग समारोह आयोजित करते हैं। अपने वीर सपूत को याद करते हैं। भारतीय सेना अपने जवानों के शहीद स्थल रेजांग ला दर्रे के पास भी बने शहीद स्मारक पर पुष्पांजलि अर्पित करती आ रही है। कई बार देश के रक्षा मंत्री, सेनाध्यक्ष ने भी इस मौके पर पहुंचकर अपने वीर सैनिकों की शहादत को सैल्यूट किया है।
पिता भी थे सेना में कर्नल
असल में मेजर शैतान सिंह के पिता भी सेना में लेफ्टिनेंट कर्नल थे। बहादुरी और राष्ट्रभक्ति उनके लहू में शामिल थी। उसका असर चीन ने भी देखा और भारत ने भी। मेजर का करियर जोधपुर नरेश की सेना में अफसर के रूप में शुरू हुआ था। जब जोधपुर स्टेट ने भारत सरकार में विलय किया तो मेजर शैतान सिंह को कुमायूं रेजीमेंट में तैनाती मिली और वे अपने वीर साथियों की मदद से एक ऐसी कहानी लिख गए जिससे भारत और भारतीयों को सदियों तक प्रेरणा मिलती रहेगी।