प्रतीक खरे
आप अगर दिल्ली से हैं या उसके आस आप के क्षेत्र में ही रहते हैं या कभी दिल्ली गए हो तो आपने दिल्ली के चांदनी चौक क्षेत्र के बारे में तो अवश्य ही सुना होगा। आपमें से बहुत से लोग वहां गए भी होंगे… नई सड़क, शीशगंज गुरुद्वारा, जैन मन्दिर… यह सभी स्थान आपने अवश्य ही देखे और सुने भी होंगे। लेकिन वहीं नई सड़क के प्रारम्भ में चौराहे के मध्य आपने एक संन्यासी की प्रतिमा लगी अवश्य देखी होगी। क्या आप जानते हैं कि कौन हैं वह सन्त और उस स्थान से उनका क्या नाता है।
आखिर इस बीच चौराहे में ही क्यों लगाई गई इस संत की प्रतिमा और इस स्थान से क्या है उनका नाता। कहीं इतिहास की कोई कहानी तो नहीं बयां करती है यह प्रतिमा। इस लेख में हम इन सभी सवालों के जवाब खोजेंगे। 02 फरवरी वर्ष 1856, पंजाब के जालन्धर जिले का तलवान ग्राम दिन था शनिवार। रईस कायस्थ परिवार में एक बच्चे का जन्म होता है। कुछ समय बाद दुर्व्यसनों में आकंठ डूबे एक नौजवान मुंशीराम को जब बरेली में आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती का सान्निध्य मिला तो उसके जीवन की दशा एवं दिशा ही बदल गई। नाम बदलकर स्वामी श्रद्धानन्द हो गया। अब देश को गुलामी की बेड़ियों से मुक्त कराना ही उनका एकमात्र ध्येय बन गया। इसी कड़ी में लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति के विरोध में उन्होंने प्राचीन गुरुकुल शिक्षा प्रणाली को पुनर्जीवित करने का बीड़ा उठाया।
इसकी परिणति वर्ष 1902 में गंगा के किनारे कांगड़ी (हरिद्वार) में गुरुकुल की स्थापना के रूप में हुई। आज यह संस्थान गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के नाम से विख्यात है और प्राचीन भारतीय मूल्यों, संस्कारों, शिक्षा और राष्ट्र भक्ति के लिए प्रदीप्त भावों के साथ कार्य कर रहा है। गुलामी की बेड़ियां तोड़ने में स्वामी श्रद्धानन्द स्वातंत्र्य समर के तेजस्वी योद्धा बनकर चमके।
30 मार्च, 1919 को सत्याग्रही आन्दोलनकारियों ने रौलेट एक्ट के खिलाफ दिल्ली के चांदनी चौक में विशाल रैली निकाली, जिसका नेतृत्व स्वामी श्रद्धानन्द कर रहे थे। अंग्रेजी फौज ने उन्हें रोकने की कोशिश की तो स्वामी श्रद्धानन्द संगीनों के सामने सीना तानकर ऊंचे स्वर में बोले, ‘चलाओ गोलियां, श्रद्धानन्द का सीना खुला है।’ उनकी इस सिंहगर्जना के सामने अंग्रेजी सैनिक टुकड़ी पीछे हट गई। आज भी चांदनी चौक में घंटाघर के पास उसी स्थान पर स्वामी श्रद्धानन्द की विशाल प्रतिमा उनकी वीरता, धीरता और निर्भयता की गाथा बयान कर रही है।
स्वामी श्रद्धानंद और गुरुकुल कांगड़ी की शिक्षा प्रणाली ने ब्रिटिश सरकार का जीना हराम कर रखा था। इंग्लैंड तक चर्चा थी कि गुरुकुल कांगड़ी क्रांतिकारियों का केन्द्र है। इसे देखने एवं वस्तुस्थिति मालूम करने वर्ष 1916 में वायसराय लार्ड चेम्सफोर्ड, संयुक्त प्रांत के राज्यपाल सर जेम्स मेस्टन और इंग्लैंड के भावी प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडानल्ड लाव-लश्कर के साथ गुरुकुल आए। गुरुकुल परिवार ने उनका भारतीय परंपरा एवं संस्कृति के अनुसार स्वागत किया। किसी ने भी उन्हें एहसास नहीं होने दिया कि गुरुकुल क्रांतिकारियों का केंद्र है।
स्वामी श्रद्धानंद की उन्नत व उदात्त राष्ट्रीय सोच और उसी भाव से सींचा गया यह वट-वृक्ष आजादी की लड़ाई का महत्वपूर्ण केंद्र बना। स्वामी श्रद्धानंद का जीवन दर्शन उनकी उत्कृष्ट कर्मनिष्ठा एवं दृढ़ संकल्प शक्ति में रचा-बसा था। हालात कितने ही विकट क्यों न हों, ‘वचस्येकं मनस्येकं कर्मेण्येकं हि महात्मनाम’ ही उनका एकमात्र सिद्धांत रहा।
हिन्दू से मुस्लिम बने लोगों की घरवापसी हेतु उनके द्वारा चलाये जा रहे शुद्धि आन्दोलन से कुंठित होकर एक कट्टर मुस्लिम अब्दुल रशीद ने धोखे से स्वामी श्रद्धानन्द की गोली मारकर हत्या कर दी। आर्य संस्कृति की पुनुरुद्धारक स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती ने अपने धर्म की रक्षा करते हुए 23 दिसम्बर 1926 को अपना बलिदान दे दिया।