देश के इतिहास में बहुत से ऐसे महापुरुष हुए है। जिनका इतिहास में योगदान तो बहुत था पर उन्हें वह स्थान नहीं मिला जिसके वह हकदार थे। लेकिन कुछ महापुरुष ऐसे भी थे जो जीते थे देश के लिए और उनका सपना भी एक ही था, माँ भारती की आजादी।
इसके लिए जिन्होंने अपना सर्वस्व निछावर कर दिया यहाँ तक की अपना घर परिवार और अपनी पहचान को भी। इसके बदले उन्हें स्वतन्त्र भारत में मिली तो सिर्फ गुमनाम जिन्दगी और उपहार के तौर पर उनके घर और परिवार के सदस्यों की वर्षों तक जासूसी ।
जिसकी बुद्धिमत्ता और अदम्य साहस के दीवाने देशी ही नहीं विदेशी भी थे। वह अपनी ही धरती पर बेगाने कर दिए गए। वह महापुरुष थे हमारे सुभाष चन्द्र बोस जिन्हे लोग नेता जी के नाम से भी जानते है।
सुभाष चन्द्र बोस कहे या फिर गुमनामी बाबा लेकिन आज के सन्दर्भ में इसे भी ज्यादा यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि आखिर वह कौन लोग थे जो सुभाष बाबू और उनकी तथाकथित मौत के बाद उनके परिवार की जासूसी करवा रहे थे।
वर्ष 1921 में भारत आते ही बोस ने गाँधी से मुलाकात की और इसके बाद काँग्रेस में काम शुरू कर दिया था। इसके बाद वह यूथ काँग्रेस के अध्यक्ष भी चुने गए। वर्ष 1927 में सुभाष चन्द्र बोस ने ‘पूर्ण स्वराज’ का नारा दिया। वर्ष 1928 में इस नारे को कमजोर कर दिया गया। नरम-गरम दल के बीच दूरियां बढ़ती जा रही थी।
वर्ष 1929 में गांधी जी ने नेहरू को कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया। 1942 में बोस के इसी नारे को नए ढंग से पेश कर कांग्रेस ने देशभर में बड़ा आंदोलन छेड़ा।
वर्ष1930 में जब गांधी जी ने दांडी मार्च किया तो बोस इसके समर्थन में थे जबकि नेहरू जी ने इसका विरोध किया था। नेहरू इस मार्च से डरे हुए थे जबकि बोस ने इसकी तुलना नेपोलियन के मार्च से करते हुए इसे ऐतिहासिक बताया था। इसे लेकर दोनों नेताओं के बीच वैचारिक अलगाव बढ़ा।
वर्ष 1939 में बोस कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव के लिए खड़े हुए और काफी अंतरों से जीत भी गए। और वे पट्टाभि सीतारमैया को अध्यक्ष बनाना चाहते थे।
फिर जब गांधी जी ने सीतारमैया की हार पर भावनात्मक टिप्पणी की तो बोस ने तत्कालीन परिस्थितियों में कांग्रेस से ही इस्तीफा दे दिया ताकि आजादी के आन्दोलन में बाधा न पहुंचे उन्होंने ऑल इंडिया फारवर्ड ब्लॉक की स्थापना की।
द्वितीय विश्व युद्ध के समय भी बोस के विचार सबसे अलग थे और इसी की वजह से वर्ष 1940 में उन्हें गिरफ्तार भी कर लिया गया।
इससे पहले ही हिटलर और मुसोलिनी से उनकी नजदीकियों को लेकर गाँधी और नेहरू ने नाराजगी जाहिर की थी। इतिहासकार रूद्रांगशु मुखर्जी की 2014 में आई किताब नेहरू एंड बोस पैरेलल लाइफ्स कहती है ‘बोस मानते थे कि वे और जवाहरलाल मिलकर इतिहास बना सकते थे लेकिन जवाहरलाल को गांधी के बगैर अपनी नियति नहीं दिखती थी जबकि गांधी के पास सुभाष के लिए कोई जगह नहीं थी।
इसके बावजूद अपने से आठ साल वरिष्ठ नेहरू को लेकर नेताजी के मन में कोई दुर्भावना नहीं थी। वे उन्हें अपना बड़ा भाई मानते थे और यहाँ तक कि उन्होंने आइएनए की एक रेजिमेंट को ही नेहरू के नाम पर रख दिया था। फिर सवाल उठता है कि आखिर नेहरू सरकार ने बोस परिवार की इतनी कड़ी निगहबानी क्यों करवाई? यह सवाल इसलिए भी खास है क्योंकि नेहरू को जासूसी जैसे काम से बहुत नफरत थी।
आइबी के पूर्व मुखिया बी.एन. मलिक 1971 में आई अपनी किताब ‘माइ इयर्स विद नेहरू’ में लिखते हैं कि प्रधानमंत्री को जासूसी जैसे काम से इतनी चिढ़ थी कि वे हमें दूसरे देशों के उन खुफिया संगठनों के खिलाफ भी काम करने की अनुमति नहीं देते जो भारत में अपने दूतावास की आड़ में काम करते थे।
यह जासूसी कुल 20 साल तक चली जिसमें 16 साल तक नेहरू प्रधानमन्त्री अगर हम इन दोनो बातो को सही मान ले तो इसका अर्थ यह हुआ की नेहरू किसी के कहने पर सुभाष बाबू की जासूसी करवा रहे थे। कारण कुछ भी रहा हो लेकिन यह बात सत्य है भारत के इस महान क्रांतिकारी को हाशिये पर रखने का कुचक्र रचा गया था।

आपको ये जानकारी कैसी लगी नीचे कमेंट बॉक्स में अपने विचार जरुर शेयर करें। ऐसी ही और अन्य जानकारी के लिए हमारी वेबसाइट क्लिक कीजिए।

By pratik khare

पत्रकार प्रतीक खरे झक्कास खबर के संस्थापक सदस्य है। ये पिछले 8 वर्ष से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हैं। इन्होंने कई समाचार पत्र, पत्रिकाओं के साथ - साथ समाचार एजेंसी में भी अपनी सेवाएं दी है। सामाजिक मुद्दों को उठाना उन्हें पसंद है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Verified by MonsterInsights