असहयोग आंदोलन (Non-Cooperation Movement) को लेकर हमेशा से हमें यही पढ़ाया गया है कि ये महात्मा गाँधी के नेतृत्व में चलाया जाने वाला पहला जन आंदोलन था जिसे देश भर में हर वर्ग के लोगों का समर्थन मिला था। अंग्रेजों के विरुद्ध चलाए गए इस आंदोलन की शुरुआत औपराचिक रूप से अगस्त 1920 से बताई जाती है। आज अगर हमें इस अहसयोग आंदोलन के बारे में अधिक जानकारी एकत्रित करनी हो तो इसके तमाम बिंदु हमें स्कूली किताबों से लेकर इंटरनेट पर पढ़ने को मिल जाएँगे। लेकिन क्या आप जानते हैं कि ये असहयोग आंदोलन का कॉन्सेप्ट पहली दफा महात्मा गाँधी द्वारा भारत को नहीं दिया गया था। ये कॉन्सेप्ट 1920 से 50 साल पहले यानी 1870 के समय में भारत आ गया था। इसे लाने वाले भारतीय का नाम ‘राम सिंह कूका (Ram Singh Kuka)’ था जिनका जन्म 3 फरवरी 1816 को हुआ था। बाद में देश ने उन्हें एक सैनिक, धार्मिक सिख नेता और भारतीय स्वतंत्रता सेनानी के रूप में जाना।


राम सिंह कूका
1816 में पंजाब के लुधियाना जिले के भैनी गाँव में जन्मे राम सिंह कूका सिख सेना के एक सैनिक हुआ करते थे। उन्होंने महाराजा रणजीत सिंह की सेना में भी अपनी सेवा दी थी और समाजिक कुरीतियों से लड़ते हुए उन्होंने न केवल सिखों के बीच जाति-व्यवस्था के ख़िलाफ़ आवाज उठाई थी, बल्कि सिखों में अंतरजातीय विवाह व विधवा औरतों के पुनर्विवाह के लिए लोगों को प्रोत्साहित भी किया था। आज देश उन्हें एक ऐसे सेनानी के रूप में जानता है जिन्होंने असहयोग आंदोलन की शुरुआत कर लोगों को बताया कि अंग्रेजों का विरोध का तरीका उनके सामानों और सेवाओं को बहिष्कार भी हो सकता है। राम सिंह कूका के बारे में मौजूद जानकारी से पता चलता है कि उनके विचार समाज में इतनी तेजी से फैल रहे थे कि अंग्रेजों ने घबराकर उन्हें आजीवन कारावास में भेज दिया था।

जब राम सिंह कूका के शिष्यों ने मौत को लगाया गला
नामधारी संप्रदाय के प्रवर्तक सदगुरु राम सिंह कूका का प्रभाव उनके अनुयायियों पर और समाज में कितना अधिक था इसका पता कुछ किस्सों से भी चलता है जो कि उनसे नहीं उनके शिष्यों से जुड़े हैं। ये वाकये तब के हैं जब सद्गुरु राम सिंह कूका के नेतृत्व में ‘कूका आंदोलन’ अपनी चरम पर था और जब विदेशी चीजों के बहिष्कार के साथ गौहत्या पर भी प्रतिबंध लगाने की माँग की जा रही थी। राम सिंह कूका के ऐसे सैंकड़ों अनुयायी थे जो देश के लिए बलिदान होने को हमेशा तत्पर रहते थे। उन्हें न गोली का डर था, न फाँसी का और न ही तोप का।

शायद यही वजह थी 17 जनवरी, 1872 की सुबह-सुबह जमालपुर गाँव के मैदान में अंग्रेजों ने 50 कूका वीरों को मारने के लिए इकट्ठा किया तो उनमें से एक का पाँव भी पीछे नहीं हटा। बल्कि, जब ब्रिटिश अधिकारी के आदेश पर जब इन सबके मुँह पर कपड़ा बाँधकर पीठ पर गोली मारने की तैयारी हुई तो ये लोग नाराज हो गए और कहा कि ये न तो मुँह पर कपड़ा बँधवाएँगे और न ही पीठ पर गोली खाएँगे। कूका वीरों को मौत के आगे भी इस तरह बेखौफ देख अंग्रेजों ने तोपें मँगवाईं और एक-एक करके सबको मारना शुरू किया।

एक तरफ जहाँ हर तोप के साथ हवा से लेकर जमीन तक में खून और मांस बढ़ता जा रहा था। वहीं देखने वालों के भीतर ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ खौफ बैठ रहा था। धीरे-धीरे सभी कूका अनुयायियों को तोप उड़ा रही थी। लेकिन तभी बारी आई एक 12 साल के बालक बिशन सिंह की। बिशन को जब मारने के लिए मैदान में खड़ा किया गया तो उनकी न दाढ़ी थी और मूंछ। उनकी माँ अलग से अंग्रेजी अधिकारी की बीवी से दया की भीख माँग रही थीं। ये सारा दृश्य मैदान में खड़े सभी लोग देख रहे थे। तभी बिशन सिंह की आवाज आई और देश पर कुर्बान होने के लिए वह चिल्लाकर बोले- “ये औरत पागल है इस पर भरोसा मत करना।”

बिशन सिंह के शब्द सुन अंग्रेजी अधिकारी बौखला गया। उसने राम सिंह कूका को गाली दी और फिर कहा “अगर तूने उस बदमाश राम सिंह का साथ छोड़ा तो हम तुझे छोड़ देंगे।” लेकिन बिशन सिंह मानने की जगह और बिदक गए। उन्होंने अपने गुरु का अपमान सुन अंग्रेजी अधिकारी पर प्रहार कर उसकी दाढ़ी पकड़ ली। बड़ी मशक्कत के बाद जब अधिकारी उस बच्चे से खुद को नहीं छुड़ा पाया तो उसे जमीन पर गिराकर गला दबाया। फिर उसके हाथ-पैर काटे और फिर उसे वहीं गोली मार दी।

इस घटना के बाद अगले दिन जिन लोगों को उसी मैदान में मौत के घाट उतारा गया उसमें एक गौभक्त का नाम वरयाम सिंह था। वरयाम की लंबाई बहुत छोटी थी। इसे देख ब्रिटिश अधिकारी ने कहा कि इसकी लंबाई कम है और छाती तोप के सामने बराबर नहीं आ रही। ऐसे में इसे छोड़ दो। मगर तभी वरयाम सिंह उठ खड़े हुए। उन्होंने आसपास से पत्थर इकट्ठा किए और उन पर खड़े होकर तोप में सिर लगाया और कहा कि अब उनकी छाती तोप के सामने है इसलिए उन्हें भी मार डाला जाए। अंत में संत वरयाम सिंह को भी उनके कहने पर तोप से मारा डाला गया।

ब्रिटिश हुकूमत को लगने लगा राम सिंह कूका से डर
ब्रिटिश हुकूमत को राम सिंह कूका के शिष्यों के अंदर निडरता देख समझ आने लगा था कि उनको यदि छोड़ा गया तो ये उनके लिए खतरा बन जाएँगे। ब्रिटिशों ने बहुत कोशिशें की कि वह नामधारियों को कुचलें। लेकिन संप्रदाय की ताकत दिन पर दिन बढ़ती गई। इसे देख एक दिन ब्रिटिशों ने राम सिंह को बहाने से पकड़ लिया और फिर उन्हें बर्मा भेजा दिया गया। इसके बाद उन्हें रंगून भेजा गया, जिसके बाद 1885 में उनकी मौत हो गई। वे आज भी स्वतंत्रता, स्वदेशी, समाज सुधार, गौरक्षा, गुलामी के सारे शांसन तंत्र को उखाड़ फेंकने के लिए छेड़ी गई अपनी जंग के लिए याद किए जाते हैं। स्वामी रामदेव ने एक ट्वीट में उन्हें संत सिपाही, योगी योद्धा, योद्धा संन्यासी बताया था। मालूम हो कि ये राम सिंह कूका का ही आह्वान था कि लाखों सैनिकों ने असहयोग आंदोलन के तहत संकल्प लिया कि वह अंग्रेजों के नल से पानी नहीं पिएँगे, डाकखाने का, रेल का प्रयोग नहीं करेंगे और जहाँ तक हो सकेगा हर तरह अंग्रेजों का बहिष्कार करेंगे। उनके कूका आंदोलन के नाम पर भारत सरकार ने 2014 में स्टैंप भी जारी किया था।

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By pratik khare

पत्रकार प्रतीक खरे झक्कास खबर के संस्थापक सदस्य है। ये पिछले 8 वर्ष से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हैं। इन्होंने कई समाचार पत्र, पत्रिकाओं के साथ - साथ समाचार एजेंसी में भी अपनी सेवाएं दी है। सामाजिक मुद्दों को उठाना उन्हें पसंद है।

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