भारतीय चिकित्सा पद्धति में वैसे तो आपने कई चिकित्सा पद्धति के बारे में सुना होगा जो वात, पित्त कफ को कंट्रोल करने में मददगार होते हैं और उनका प्रयोग वर्तमान समय में भी किया जाता है, उन्हीं में से एक है अग्निकर्म चिकित्सा (थर्मल माइक्रोकॉटरी)। इसका विस्तृत वर्णन करीब 2500 साल पहले भारतीय सर्जन महर्षि सुश्रुत ने प्राचीन आयुर्वेद साहित्य में दस्तावेजीकरण किया था। हालांकि आज भी कई लोग इसके बारे में नहीं जानते हैं।
अग्निकर्म चिकित्सा सदियों पुरानी तकनीक है, जिसमें लोह, ताम्र, रजत, वंग, कांसे और मिश्रित धातु से बनी (शलाका) का प्रयोग किया जाता है। इस शलाका से दर्द वाले हिस्से पर विशेष (ऊर्जा) गर्मी देकर राहत दिलाने का काम किया जाता है। इस उपचार के दौरान व्यक्ति को दर्द भी महसूस नहीं होता है।
उत्तराखंड के चमोली जिले के आयुर्वेदिक और यूनानी अधिकारी डॉक्टर सुनील रतूड़ी बताते हैं कि अग्नि कर्म चिकित्सा का प्रयोग हड्डियों और जोड़ों के दर्द, जोड़ों में अकड़न, मांसपेशियों में ऐंठन, टेनिस एल्बो, कैल्केनियल स्पर, प्लांटर फैस्कीटिस, ऑस्टियो आर्थराइटिस, सिरदर्द, साइटिका, मस्से को हटाने के लिए, एड़ी से कॉर्न को निकालने के लिए, बाहरी बवासीर को निकालने के लिए, डिस्क प्रोलैप्स, पीठ के निचले हिस्से में दर्द के लिए ट्रिगर थम्ब, होंठ, जीभ आदि की म्यूकोसेल को निकालने के लिए, त्वचा और मांसपेशियों की कुछ अतिरिक्त वृद्धि को निकालने के लिए, फिस्टुला ट्रैक आदि को निकालने के लिए किया जाता है। इस ट्रीटमेंट को करने के लिए पंच धातु शलाका का प्रयोग किया जाता है, जिसमें तांबा, पीतल, कांसा, शीशा, टिन की बराबर मात्रा का उपयोग किया जाता है।
भविष्य में चिकित्सा शुरू होने के आसार
जिला आयुर्वेदिक और यूनानी अधिकारी डॉक्टर सुनील रतूड़ी बताते हैं कि चमोली जिले में वर्तमान समय में इस चिकित्सा पद्धति का इस्तेमाल नहीं किया जाता है, उसका कारण लंबे समय से आयुर्वेदिक चिकित्सकों के पद खाली होना है, लेकिन जनपद को अब 43 नए आयुर्वेदिक चिकित्सक मिल गए हैं, जिसमें कई विषय विशेषज्ञ भी हैं। जिसके बाद भविष्य में तमाम प्रकार की चिकित्सा जिले में शुरू होने की उम्मीद है।