राजा राममोहन राय को भारतीय पुनर्जागरण का अग्रदूत और आधुनिक भारत का जनक कहा जाता है। भारतीय सामाजिक और धार्मिक पुनर्जागरण के क्षेत्र में उनका विशिष्ट स्थान है। वे ब्रह्म समाज के संस्थापक, भारतीय भाषायी प्रेस के प्रवर्तक, जनजागरण और सामाजिक सुधार आंदोलन के प्रणेता तथा बंगाल में नव-जागरण युग के पितामह थे। उन्होंने भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम और पत्रकारिता के कुशल संयोग से दोनों क्षेत्रों को गति प्रदान की।
उनके आन्दोलनों ने जहाँ पत्रकारिता को चमक दी, वहीं उनकी पत्रकारिता ने आन्दोलनों को सही दिशा दिखाने का कार्य किया। राजा राममोहन राय की दूर‍दर्शिता और वैचारिकता के सैकड़ों उदाहरण इतिहास में दर्ज हैं। हिन्दी के प्रति उनका अगाध स्नेह था। वे रू‍ढ़िवाद और कुरीतियों के विरोधी थे लेकिन संस्कार, परंपरा और राष्ट्र गौरव उनके दिल के करीब थे। वे स्वतंत्रता चाहते थे लेकिन चाहते थे कि इस देश के नागरिक उसकी कीमत पहचानें।
अंग्रेजी शासन, अंग्रेजी भाषा एवं अंग्रेजी सभ्यता की प्रशंशा करने के लिये राममोहन राय की आलोचना की जाती है। उन्होने स्वतंत्रता आन्दोलन में कोई प्रत्यक्ष भाग नहीं लिया। उनकी अन्तिम सांस भी ब्रिटेन में निकली। कुछ लोगों का विचार है कि वे अपनी जमींदारी को चमकाते हुए भारतीय समाज में हीन भावना भरने का कार्य कर रहे थे और अंग्रेजों के अदृश्य सिपाही थे। उन्होने भारत में अंग्रेजी राज्य (गुलामी) की स्थापना एवं उसके सशक्तीकरण के लिये रास्ता तैयार किया। वे अंग्रेजी कूटनीति को समझ नहीं सके और भारतीय जनता का सही मार्गदर्शन नहीं कर सके।
अरंभिक जीवन 
राजा राम मोहन राय का जन्म 22 मई 1772 को बंगाल के हुगली जिले के राधा नगर गाँव में हुआ था। पिता का नाम रमाकान्त राय एवं माता का नाम तारिणी देवी था। उनके प्रपितामह कृष्ण चन्द्र बर्नजी बंगाल के नवाब की सेवा में थे। उन्हें राय की उपाधि प्राप्त थी। ब्रिटिश शाशकों के समक्ष दिल्ली के मुगल सम्राट की स्थिति स्पष्ट करने के कारण सम्राट ने उन्हें राजा की उपाधि से विभूषित किया था। प्रतिभा के धनी राजा राम मोहन राय बहुभाषाविद् थे।
उन्हें बंगला , फारसी, अरबी, संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, ग्रीक, फ्रैन्च, लेटिन आदि भाषाओं का अच्छा ज्ञान था। इन भाषाओं में वे अपने भावों को कुशलता से अभिव्यक्त करने की क्षमता रखते थे। वैष्णव भक्त परिवार के होने के बावजूद राजा राम मोहन राय की आस्था अन्य धर्मों में भी थी। वेद एवं उपनिषदों में प्रतिपादित एकेश्वरवाद में आस्था रखने वाले राजा जी ने इस्लाम धर्म का गहन अध्ययन किया । मूर्ति पूजा में उनकी आस्था नहीं थी। एक अंग्रेजी पत्र ने लिखा था कि, राजा राम मोहन राय को गवर्नर जनरल बना देना चाहिये क्योंकि वे न हिन्दू हैं न मुसलमान और न ईसाई। ऐसी स्थिति में वे निष्पक्षता से गवर्नर जनरल का कार्यभार संभाल सकते हैं।
ये कहना अतिशयोक्ति न होगी कि राजा राम मोहन राय केवल हिन्दू पुनरुत्थान के प्रतीक नहीं थे अपितु सच्चे अर्थ में वे धर्म निरपेक्षता वादी थे। 1802 में उन्होंने एकेश्वरवाद के समर्थन में फारसी भाषा में “टुफरवुल मुवादिन” नामक पुस्तक की रचना की। इस पुस्तक की भूमिका उन्होंने अरबी भाषा में लिखी। 1816 में उनकी पुस्तक “वेदान्त सार” का प्रकाशन हुआ जिसके माध्यम से उन्होंने ईश्वरवाद और कर्म-काण्ड की घोर आलोचना की। जीविकोपार्जन हेतु रंगपुर में ईस्ट इण्डिया के अधीन नौकरी किये और बाद में रंगपुर की कलक्टरी में दीवान बन गये।
उस समय दो अलग जाती में विवाह अंतरजातीय कहलाता था इसके बावजूद इन्होने शादी की |  इन्होने अपना जीवन में तीन शादियाँ की, इनकी पहली शादि बहुत ही कम उम्र में हुई थी, जो बहुत ही कम समय में इनका साथ छोड़ कर चली गई थी | इसके बाद इन्होने दूसरी शादी की वो भी इनका साथ लम्बे समय तक नहीं निभा सकी, इन दोनों के दो पुत्र राधाप्रसाद और रामप्रसाद थे | तत्पश्चात इन्होने उमा देवी से शादी की इन्होने इनका साथ उम्र भर दिया | और सन 27 सितम्बर 1833 को राजा राममोहन रॉय का निधन इंग्लैंड में हुआ |
 राजा बहुमुखी प्रतिभा के इन्सान थे | इनमे हमेसा कुछ नया करने और सिखने की ललक बनी रहती थी | इनकी प्रारंभिक शिक्षा इनके गाँव पर ही हुई, जहाँ इन्हें बंगला भाषा का ज्ञान हुआ | इसके बाद रॉय उच्च शिक्षा के लिए पटना चले गये | यहाँ से इन्होने अरबी और फारसी दोनों भाषा का ज्ञान हासिल किया | इसी दरमियान राजा राममोहन रॉय की मुलाकात संस्कृत गुरु नंदकुमार से हुई, इनसे उन्हें संस्कृत का ज्ञान हुआ और साथ ही इनसे तंत्र मंत्र विद्या का भी ज्ञान लिया |
राजा इन सभी भाषा के अलावा और भी कई भाषाओ के ज्ञाता थे | इन्हें बंगला, फारसी, अरबी, संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी, ग्रीक, फ्रेंच, लेटिन आदि भाषाओ पर अच्छी पकड़ बना रखी थी | राजा राममोहन रॉय जन्म से वैष्णव भक्त होने के बावजूद ये अन्य सभी धर्मो को भी मानते थे और अन्य धर्म में आस्था रखते थे | इन्होने शिर्फ़ अपनी धर्म का अध्यन नहीं किया था किन्तु अपने धर्म के साथ साथ इन्होने इस्लाम धर्म का भी अध्यन अच्छे से किया |
इन्होने तिब्बत जाकर बौद्ध धर्म का अध्ययन किया. लौटने पर विवाह होने के बाद पारिवारिक निर्वाह के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी में क्लर्क के पद पर नौकरी कर ली. नौकरी के समय अंग्रेजी, लैटिन और ग्रीक भाषाओ का ज्ञान प्राप्त किया. 40 वर्ष की उम्र में नौकरी छोड़कर कोलकाता में रहकर समाज सेवा कार्य में लग गये. इस दिशा में इन्होने सती-प्रथा का विरोध, अन्धविश्वासो का विरोध, बहु-विवाह विरोध और जाति प्रथा का विरोध किया. विधवाओ के पुनर्विवाह और पुत्रियों को पिता की संपत्ति दिलवाने की दिशा में कार्य किया. उदारवादी दृष्टिकोण के कारण इन्होने सन 1814 में ‘आत्मीय सभा’ बनाई जिसका उद्देश्य ”ईश्वर एक है” का प्रचार था. एक ईश्वर की अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए ‘ब्रह्मसभा’ की स्थापना की.जिसे ‘ब्रह्मसमाज’ कर दिया. इसमें सभी धर्मो के अच्छी बातो का समावेश था.
सती प्रथा विरोध 
राजा राम मोहन राय के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि थी – सती प्रथा को बंद कराना। उन्होंने ही अपने कठिन प्रयासों से सरकार द्वारा इस कुप्रथा को ग़ैर-क़ानूनी दंण्डनीय घोषित करवाया। उन्होंने इस अमानवीय प्रथा के विरुद्ध निरन्तर आन्दोलन चलाया। यह आन्दोलन समाचार पत्रों तथा मंच दोनों माध्यमों से चला। इसका विरोध इतना अधिक था कि एक समय पर तो उनका जीवन ही खतरे में था। वे अपने शत्रुओं के हमले से कभी नहीं घबराये। उनके पूर्ण और निरन्तर समर्थन का ही प्रभाव था, जिसके कारण लॉर्ड विलियम बैंण्टिक 1829 में सती प्रथा को बन्द कराने में समर्थ हो सके।
जब कट्टर लोगों ने इंग्लैंड में ‘प्रिवी कॉउन्सिल’ में प्रार्थना पत्र प्रस्तुत किया, तब उन्होंने भी अपने प्रगतिशील मित्रों और साथी कार्यकर्ताओं की ओर से ब्रिटिश संसद के सम्मुख अपना विरोधी प्रार्थना पत्र प्रस्तुत किया। उन्हें प्रसन्नता हुई जब ‘प्रिवी कॉउन्सिल’ ने ‘सती प्रथा’ के समर्थकों के प्रार्थना पत्र को अस्वीकृत कर दिया। सती प्रथा के मिटने से राजा राममोहन राय संसार के मानवतावादी सुधारकों की सर्वप्रथम कतार में आ गये।
राम मोहन रॉय ने आधुनिक भारत के इतिहास में प्रभावशाली काम किये है। वेदांत स्कूल ऑफ़ फिलोसोफी में उन्होंने उपनिषद का अभ्यास किया था। उन्होंने वैदिक साहित्यों को इंग्लिश में रूपांतर भी किया था और साथ ही ब्रह्म समाज की स्थापना भी उन्होंने की थी। भारतीय आधुनिक समाज के निर्माण में ब्रह्म समाज की मुख्य भूमिका रही है। सती प्रथा के खिलाफ उन्होंने सफल मोर्चा भी निकाला था। वे भारत से पश्चिमी संस्कृति को निकालकर भारतीय संस्कृति को विकसित करना चाहते थे। आधुनिक समाज के निर्माण के लिए उन्होंने कई स्कूलो की स्थापना की थी, ताकि भारत में ज्यादा से ज्यादा लोग शिक्षित हो सके।
राजा राम मोहन रॉय स्वभाव से अत्यंत शिष्ट थे लेकिन अन्याय के सख्त विरोधे थे |  उन दिनों एक नियम बन गया था कि यदि कोई अंग्रेज अधिकारी दिखाई दे तो उसे अपनी सवारी से उतरकर सलाम करना होगा वरना उस व्यक्ति को अंग्रेज अफसर का अपमान का दोषी माना जाएगा | एक दिन राम मोहन रॉय पालकी में सवार होकर कही जा रहे थे तभी रास्ते में कलकत्ता के कलेक्टर सर फेडरिक हेमिल्टन खड़े थे | अनजाने में ही पालकी चलाने वाले ने उनको नही देखा और आगे बढ़ गया था |
हेमिल्टन को ये देखकर गुस्सा आ गया और उसने तुरंत पालकी रुकवा दी | पालकी से अब राम मोहन रॉय उतरे और उस कलेक्टर से नमस्कार कर पालकी रोकने का कारण पूछा लेकिन उन्होंने राम मोहन की एक बात नही सुनी और उनका खूब अपमान किया | उस समय राजा राम मोहन रॉय चुपचाप वहा से निकल गये लेकिन उन्होंने इस घटना की शिकायत लार्ड मिन्टो तक भेजी | आगे चलकर राम मोहन रॉय ने इस असभ्य नियम के खिलाफ कानून पास करवाए थे |
म्रुत्यू 
1814 में उन्होंने आत्मीय सभा को आरम्भ किया और 1828 में उन्होंने ब्रह्म समाज की स्थापना की थी |1830 में इंग्लैंड जाकर उन्होंने भारतीय शिक्षा के मशाल जलाई थी | उनके बाद स्वामी विवेकानन्द और अन्य विभूतियों ने पश्चिम में भारत का परचम फहराया था | 1831 से 1834 तक उन्होंने इंग्लैंड में अपने प्रवासकाल के दौरान ब्रिटिश भारत की प्रशाशनिक पद्दति में सुधर के लिए आन्दोलन किया था | ब्रिटिश संसद के द्वारा भारतीय मामलों पर परामर्श लिए जाने वाले वो प्रथम भारतीय थे | 27 सितम्बर 1833 को इंग्लैंड के ब्रिस्टल में उनका निधन हो गया |
 

By pratik khare

पत्रकार प्रतीक खरे झक्कास खबर के संस्थापक सदस्य है। ये पिछले 8 वर्ष से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हैं। इन्होंने कई समाचार पत्र, पत्रिकाओं के साथ - साथ समाचार एजेंसी में भी अपनी सेवाएं दी है। सामाजिक मुद्दों को उठाना उन्हें पसंद है।

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