इतिहास में महिला वीरांगनाओं की कम संख्या नहीं हैं, लेकिन उनमें से केवल रानी दुर्गावती ऐसी हैं जिन्हें उनके बलिदान और वीरता के साथ गोंडवाना का एक कुशल शासक के तौर पर भी याद किया जाता है। 24 जून को देश उनका बलिदान दिवस मनाता है जब उन्हें मुगलों की आगे हार स्वीकार नहीं की और आखिरी दम तक मुगल सेना का सामना कर उसकी हसरतों को कभी पूरा नहीं होने दिया।

इस क्षेत्र में था शासन
रानी दुर्गावती का जन्म 1524 में हुआ था. उनका राज्य गोंडवाना में था. वे कलिंजर के राजा कीर्तिसिंह चंदेल की एकमात्र संतान थीं. दुर्गावती के पति दलपत शाह का मध्य प्रदेश के गोंडवाना क्षेत्र में रहने वाले गोंड वंशजों के 4 राज्यों, गढ़मंडला, देवगढ़, चंदा और खेरला, में से गढ़मंडला पर अधिकार था। दुर्भाग्यवश रानी दुर्गावती से विवाह के 4 वर्ष बाद ही राजा दलपतशाह का निधन हो गया।

खुद संभाली बागडोर
पति के निधन के समय समय दुर्गावती का पुत्र नारायण 3 वर्ष का ही था अतः रानी को स्वयं ही गढ़मंडला का शासन संभालना पड़ाय वर्तमान जबलपुर उनके राज्य का केंद्र था। रानी ने 16 साल तक इस क्षेत्र में शासन किया और एक कुशल प्रशासक की अपनी छवि निर्मित की. लेकिन उनके पराक्रम और शौर्य के चर्चे ज्यादा थे. कहा जाता है कि कभी उन्हें कहीं शेर के दिखने की खबर होती थी, वे तुरंत शस्त्र उठा कर चल देती थीं और और जब तक उसे मार नहीं लेती, पानी भी नहीं पीती थीं।

खूबसूरती की तारीफ अकबर तक
रानी दुर्गावती बेहद खूबसूरत भी थीं। जब मानिकपुर के सूबेदार ख्वाजा अब्दुल मजीद खां ने रानी दुर्गावती के विरुद्ध अकबर को उकसाया था। अकबर अन्य राजपूत घरानों की विधवाओं की तरह दुर्गावती को भी रनिवासे की शोभा बनाना चाहता था।बताया जाता है कि अकबर ने उन्हें एक सोने का पिंजरा भेजकर कहा था कि रानियों को महल के अंदर ही सीमित रहना चाहिए, लेकिन दुर्गावती ने ऐसा जवाब दिया कि अकबर तिलमिला उठा।

मुगलों के विरूद्ध संघर्ष
रानी दुर्गावती ने मुगल शासकों के विरुद्ध कड़ा संघर्ष किया था और उनको अनेक बार पराजित किया था और हर बार उन्होंने जुल्म के आगे झुकने से इंकार कर स्वतंत्रता और अस्मिता के लिए युद्ध भूमि को चुना। दो हमलों के बाद 24 जून 1564 को मुगल सेना ने फिर हमला किया तब तक रानी की सैन्य शक्ति कम हो गई थी। ऐसे में रानी ने अपने पुत्र नारायण को सुरक्षित स्थान पर भेज दिया।

अंतिम सांस तक लड़ी
युद्ध के दौरान पहले एक तीर उनकी भुजा में लगा, रानी ने उसे निकाल फेंका। दूसरे तीर ने उनकी आंख को बेध दिया, रानी ने इसे भी निकाला पर उसकी नोक आंख में ही रह गयी। इसके बाद तीसरा तीर उनकी गर्दन में आकर धंस गया। अंत समय निकट जानकर रानी ने वजीर आधारसिंह से आग्रह किया कि वह अपनी तलवार से उनकी गर्दन काट दे, पर वह इसके लिए तैयार नहीं हुआ। अतः रानी अपनी कटार स्वयं ही अपने सीने में भोंककर आत्म बलिदान के पथ पर बढ़ गयीं।

आज भी याद किया जाता है रानी दुर्गावती को
जबलपुर के पास जहां यह ऐतिहासिक युद्ध हुआ था, उस स्थान का नाम बरेला है। मंडला रोड पर स्थित रानी की समाधि बनी है, जहां गोण्ड जनजाति के लोग अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। रानी के ही नाम पर जबलपुर में स्थित रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय रखा गया है. रानी की मृत्यु के बाद उनका देवर चंद्रशाह ने मुगलों की अधिनता स्वीकार कर ली और शासक बना।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Verified by MonsterInsights