प्रतीक तीवारी
नवरात्रि में दुर्गा सप्तसती चण्डी पाठ ज्यादातर हर घर में होता हैं और दुर्गा सप्तसती के तेरह अध्यायों को मेधा ॠषि ने राजा सुरथ को और समाधि नामक वैश्य को देवी जगदंबा के अलग-अलग रूपों को और महात्म को अलग-अलग अध्यायों के माध्यम से बताया है। उन्हीं राजा सुरथ द्वारा स्थापित भगवती जगदंबा के पुरातन और अनादिकाल की जागृत प्रतिमाएं आज भी उत्तर प्रदेश के बलिया जनपद के सुरहा ताल (जयप्रकाश नरायण पक्षी विहार) के किनारे और आसपास के क्षेत्र में स्थित हैं।
मार्कंडेय पुराण के अनुसार पूर्व काल में स्वारोचिष मन्वन्तर में सूरथ नाम के राजा थे, जो चैत्र वंश में उत्पन्न हुए थे। उनका समस्त भूमंडल पर अधिकार था। उनका शत्रुओं के साथ संग्राम हुआ जिसमें राजा सूरथ परास्त हो गये। पराजित होने के बाद राजा अपने नगर को लौट गये। वहां भी उनके शत्रुओं ने उन पर धावा बोल दिया। इसी क्रम में उनके मंत्रियों ने उनके साम्राज्य पर आधिपत्य स्थापित कर लिया। सुरथ शिकार खेलने के बहाने जंगल में निकल पड़े। वहां उन्होंने मेधा ऋषि का आश्रम देखा, जहां हिंसक जीव भी शांति भाव से रह रहे थे। राजा सूरथ ऋषि के दर्शन के लिए गये और उनको आपबीती सुनाई। ऋषि ने देवी का महात्म्य बताने के साथ ही राजा को देवी की शरण में जाने को कहा। राजा सूरथ समाधि नामक जिसके परिवार ने उसका तिरस्कार कर दिया था, उस वैश्य के साथ जगदम्बा के दर्शन के लिए एक विशाल ताल के तट पर रहकर तपस्या करने लगें। कई वर्षों तक जगदंबा भवानी को विविध प्रकार से उपासना-आराधना और अपने शरीर को विविध प्रकार के कष्ट देकर देवी जगदंबा को प्रसन्न कर लिया। उन दोनों भक्तों की कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर देवी चण्डिका ने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन देकर उनकी अभिलाषा को पूरा किया। राजा को उनका साम्राज्य वापस मिल गया और वैश्य को उसके इच्छानुसार मोक्ष की प्राप्ति हुई।
बताते हैं कि राजा सुरथ ने जहां तपस्या की थी वहां एक गंगा और स्थानीय ताल के मिलन से एक नदी बहती थी। उस नदी में स्नान करने से राजा और वैश्य को अनेक कष्टों से मुक्ति मिली थी। इसीलिए उसका नाम कष्टहर नाला हुआ। जो आज कटहर नाला के नाम से प्रसिद्ध है और उस विशाल ताल का नाम राजा सुरथ के नाम पर सुरहा ताल हुआ। राजा सुरथ ने इस ताल के नजदीक पांच शिव और शक्ति को समर्पित मंदिरों की स्थापना की, जिनमें शंकरपुर का भवानी मंदिर, ब्रह्माइन की ब्रह्माणी देवी, असेगा के शोकहरण नाथ महादेव, अवनीनाथ का मंदिर और बालखंडी नाथ महादेव का मंदिर शामिल है।
भगवती मंदिर, शंकरपुर
बलिया जिला मुख्यालय से लगभग पांच किलोमीटर की दूरी पर बलिया-बांसडीह रोड पर स्थित मां भगवती का यह मंदिर भक्तों की भक्ति का केंद्र है। राजा सुरथ द्वारा स्थापित मां भगवती की दिव्य प्रतिमा देवी के नारायणी स्वरूप की है। यह प्रतिमा कब की है यह किसी को ज्ञात नहीं, पर क्षेत्र प्रचलित किंवदंती के अनुसार कई सालों पूर्व खेत में हल चलाते समय, हल में ठोकर के साथ खून लगने के कारण जब किसानों ने देखा तो वहां जमीन के थोड़े ही नीचे चिकने काले पत्थर से निर्मित भगवती की अत्यंत मनोहारी और सौम्य रूप वाली प्रतिमा प्राप्त हुई। बाद में मां भगवती ने किसी को सपने में आदेश दिया कि मैं जहां से निकली हूं वहां पर मेरा अनादिकाल से स्थान है। पुनः मुझे उसी स्थान पर स्थापित करो। तब से आजतक भगवती नारायणी शंकरपुर में विराजित हैं। राजा सुरथ ने यहां मां भगवती की सौम्य रूप की प्रतिमा स्थापित की थी। यहां भगवती का स्वरूप नारायण की शक्ति नारायणी (वैष्णवी) रूप में हैं। यहां की पूजा पद्धति भी सात्विक है। यहां भगवती को अन्य देवी स्थानों जैसे पशु बलि देना निषेध है। आज यह मंदिर अपने विशाल रूप के साथ देवी भगवती के महिमा का गुणगान कर रहा है। यह स्थान अनादिकाल से एक सिद्धपीठ रहा है और भक्तों और साधकों की मनोकामनाओं को पूर्ण करता आ रहा है। वर्ष भर भक्तों का यहां तांता लगा रहता है। साल के दोनों नवरात्रों भगवती मंदिर की रौनक देखने लायक होती है। चैत्र की रामनवमी को यहां विशाल मेला लगता है। जो भगवती जगदंबा के इस अनादिकाल के सिद्धपीठ की महिमा और भी विस्तारित कर देता है।
ब्रह्माणी देवी मंदिर, ब्रह्माइन
जिला मुख्यालय से पांच किमी दूर उत्तर बलिया-सिकंदरपुर मुख्य मार्ग पर ब्रह्माइन गांव में स्थित मां ब्राह्मणी देवी का प्राचीन और भव्य मंदिर सुरहाताल के एकदम किनारे स्थित है। नवरात्र में ही नहीं बल्कि अन्य अवसरों पर भी दर्शन-पूजन को दूर-दराज से लोग यहां आते हैं। दुर्गा सप्तशती व मार्कंडेय पुराण के अनुसार यहां विराजित देवी ब्रह्माणी की प्रतिमा राजा सुरथ द्वारा स्थापित और पूजित है और पुरातन काल से इस स्थान पर विद्यमान हैं। वर्तमान में जहां ब्रह्माइन गांव स्थित है, कालांतर में वहां जंगल था। इसी स्थान पर राजा सुरथ ने मेधा ॠषि के परामर्श के अनुसार भगवती जगदंबा की कठिन तपस्या की थी। कई वर्षों तक जगदम्बा भवानी की तपस्या करने पर भगवती जगदंबा ने इसी स्थान पर राजा को दर्शन दिया था। यहां भगवती के ब्राह्मणी रूप की पूजा होती है। यहां मां भगवती को अन्य मंदिरों की भांति सिंदूर नहीं जाता। राजा सुरथ को यहां देवी ने प्रसन्न होकर अपने उग्ररूप में दर्शन दिए थे और राजा को कभी भी युद्ध में पराजित न होने का वरदान दिया था। इसिलिए यहां देवी भगवती का उग्र रूप स्वरूप विराजित है। युद्ध के कारण लगी चोट और घावों से राजा सुरथ को यहां निकट के सरोवर के जल के सेवन और आचमन से ही मुक्ति मिली थी। यह क्षेत्र पुरातन काल से ही दिव्य, चमत्कारिक और सिद्ध क्षेत्र रहा है। मां भगवती यहां अपने भक्तों की समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति करती हैं। जनपद के प्रमुख और सिद्ध शक्ति उपासना के स्थलों में प्रमुख देवी मंदिर में देवी जगदम्बा की अद्भुत प्रतिमा अपने स्वर्ण जड़ित नेत्रों से भक्तों पर ममता और करुणा की वर्षा करती हुईं प्रतीत होती हैं। विविध अलंकारों और परिधानों से अलंकृत भगवती का श्रीविग्रह पुरापाषाण कालीन काले पत्थरों से निर्मित है। यहां साल के दोनों नवरात्रों में सप्तमी की मध्यरात्रि में महानिशा पूजा का आयोजन किया जाता है, जिसमें जिले के कोने-कोने से भक्त मां ब्रह्माणी का अद्वितीय श्रृंगार और आरती-पूजन का दर्शन करने आते हैं। भक्त पूरी रात भगवती के मंदिर में रहते हैं। भगवती ब्रह्माणी भक्तों पर अपनी कृपा हमेशा बनाएं रखें, बस इसी विश्वास के साथ भक्त हमेशा देवी के चौखट पर माथा टेकते रहते हैं।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)