डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी देश की ऐसी शख्सियत रह चुके हैं, जिन्होंने भारतीय जन संघ पार्टी की नीव रखी। ये भारत की आजादी के समय के राजनेता, शिक्षा शास्त्री और एक क्रांतिकारी थे। ये एक निडर और स्पष्ट भारतीय राजनेता थे जोकि अपने विचारों के कारण बहुत लोकप्रिय थे, और सच्चाई को मानते थे। शुरुआत में इन्होंने भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु जी की कैबिनेट में उद्योग एवं सप्लाई मंत्री के रूप में कार्य किया था। फिर बाद में उन्होंने कांग्रेस को छोड़कर खुद की बीजेएस पार्टी का गठन किया। इनका जन्म कलकत्ता के रहने वाले एक बंगाली परिवार में हुआ, जोकि वहां का उच्च सामाजिक स्टेटस वाला परिवार था। इनके पिता बंगाल के कलकत्ता शहर के हाई कोर्ट में जज थे। इसके अलावा वे कलकत्ता के पहले भारतीय वाईस चांसलर भी थे। इनका ब्रिटिशों के बीच भी काफी सम्मान किया जाता था। श्यामा प्रसाद मुखर्जी के माता-पिता ने उन्हें भी मानवतावादी कारणों के लिए शुद्ध और साथ जीवन जीने के लिए प्रेरित किया। इस तरह मुखर्जी जी का शुरुआती जीवन काफी अच्छा रहा।

व्यक्तिगत जानकारी
इनका विवाह 16 अप्रैल 1922 को सुधा देवी जी के साथ हुआ, जोकि डॉ बेनीमाधव चक्रवर्ती की बेटी थी। इनके कुल 5 बच्चे हुए, जिनमें से एक को डिप्थीरिया की बीमारी लग गई थी और इस वजह से उसकी मृत्यु हो गई। मुखर्जी जी अपनी पत्नी के साथ में 11 साल तक रहे, उसके बाद सन 1933 में उनकी पत्नी की मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के बाद मुखर्जी जी बिखर गए थे पर उन्होंने दूसरी शादी नहीं की. इनकी पत्नी की बहन ने इनके बच्चों को संभाला।

शिक्षा
मुखर्जी अंग्रेजी साहित्य के बहुत ही बेहतरीन छात्र थे. इन्होने कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज से कला में इंटरमीडिएट की पढ़ाई पूरी की. इसके शुरूआती अध्ययन के दौरान उन्हें 10 रूपये प्रति माह की योग्यता छात्रवृत्ति प्रदान की गई. इनके पिता के कलकत्ता विश्वविद्यालय में वाईस चांसलर होने के कारण इन्होने अपनी शिक्षा भी इसी विश्वविद्यालय से पूरी की. सन 1921 में इन्होने अंग्रेजी ऑनर्स में अपना ग्रेजुएशन (बीए) पूरा किया. इसके बाद इन्होने सन 1923 में उसी संस्थान से अपनी एमए की पढ़ाई की, इन्होने एमए बंगाली भाषा साहित्य में किया था, जिसमे वे प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए थे. इसी वर्ष वे कलकत्ता के विश्वविद्यालय के सीनेट के सदस्य बने, और अपनी कानून की पढ़ाई शुरू कर दी।

करियर
सन 1924 में मुखर्जी ने खुद को कलकत्ता के उच्च न्यायालय में एक वकील के रूप में नामांकित किया. वे वकील बन गये, किन्तु इसी वर्ष इनके पिता की मृत्यु हो गई. इस घटना ने उनका जीवन बदल दिया, वे बहुत दुखी रहने लगे. अपने पिता की मृत्यु और कलकत्ता उच्च न्यायालय में 2 साल का अभ्यास करने के बाद वे सन 1926 में कानून की आगे की पढ़ाई के लिए लंदन चले गये और सन 1927 में वे बैरिस्टर बने. फिर वे कलकत्ता वापस आ गये. उन्हें वकील एवं शिक्षक का पेशा बहुत पसंद था, इसलिए वे इस रास्ते पर चल दिए. सन 1934 में वे अपने प्रयासों के चलते 33 वर्ष की उम्र में कलकत्ता विश्वविद्यालय के सबसे कम उम्र के वाईस चांसलर बने और इस पद पर वे सन 1938 तक रहे।

राजनीतिक करियर
इनके वाईस चांसलर का कार्यकाल पूरा होने के बाद इन्होने सक्रीय राजनीती में प्रवेश किया. वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी में शामिल हुए, और इसमें शामिल होने के बाद वे बंगाल की विधान परिषद के लिए चुने गये थे। हालांकि उन्होंने केवल एक साल तक ही विधायक परिषद का पद संभाला, इसके बाद उन्होंने त्याग पत्र दे दिया। उसके बाद उन्होंने एक स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा. उन्होंने यह चुनाव जीता, और सन 1941-42 के लिए बंगाल प्रान्त के वित्त मंत्री के रूप में पद संभाला. सन 1942 में गाँधी जी ने अपना ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ शुरू किया था. उस समय वे सरकार का हिस्सा थे तो वे कांग्रेस गतिविधियों में शामिल नहीं होना चाहते थे. लेकिन उन्होंने देखा कि इस आंदोलन के चलते ज्यादातर कांग्रेस नेताओं को ब्रिटिश सरकार ने गिरफ्तार कर लिया था. उस समय सरकार का विरोध करने के लिए कोई भी नहीं था. तब मुखर्जी जी ने इस अन्याय के खिलाफ लड़ने का फैसला किया. उन्होंने भारत के तत्कालीन राजपाल लार्ड लिंलिथग्रो के साथ बातचीत कि वे कांग्रेस नेताओं को रिहा कर दें. लेकिन राजपाल ऐसा करने के बिलकुल मूड में नहीं थे, वे ब्रिटिश सरकार को मनाने में सक्षम नहीं हो सके. आखिरकार उन्होंने बंगाल कैबिनेट छोड़ने का फैसला किया. बंगाल कैबिनेट छोड़ने के बाद, वे ब्रिटिश सरकार से लड़ने के लिए राष्ट्रवादी ताकतों में शामिल हो गए. उनके इस कठिन संघर्ष के बाद सन 1944 में ब्रिटिश ने कांग्रेस के नेताओं को रिहा कर दिया। इसके बाद वे धीरे- धीरे बंगाल में हिन्दुओं के प्रवक्ता के रूप में लोकप्रिय हो गये, और हिन्दू महासभा में शामिल होने के बाद उन्हें सन 1944 में इसका अध्यक्ष नियुक्त किया गया।

भारत का विभाजन
उन्होंने मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद जिन्नाह द्वारा एक अलग मुस्लिम राज्य बनाने के विचारों के खिलाफ विरोध किया था। दरअसल ब्रिटिशों ने यह फैसला लिया था कि वे अब भारत के प्रशासन को जारी रखने में सक्षम नहीं हो सकते हैं। और उन्होंने भारत को आजाद करने का फैसला किया, लेकिन वे इस स्वतंत्रता के पहले भारत का बंटवारा करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने मुस्लिम लीग को इसके लिए भड़काया। कांग्रेस भी अंग्रेजों से किसी भी कीमत पर स्वतंत्रता पाना चाहती हैं, इसलिए वे भारत के विभाजन के लिए भी तैयार हो गई थी। मुखर्जी जी को यह मंजूर नहीं था, हालांकि उन्होंने कांग्रेस का समर्थन इसलिए किया था, क्योंकि उन्हें सरदार वल्लभभाई पटैल ने यह आश्वासन दिया था कि कांग्रेस कभी देश के विभाजन को स्वीकार नहीं करेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, वे इस बात से काफी निराश हुए। ब्रिटिश कैबिनेट ने उन्हें कांग्रेस कार्यकारिणी समिति का वह संकल्प पत्र दिखाया, जिसमें लिखा था कि कांग्रेस भारत में रहने के लिए किसी भी अनविल्लिंग हिस्से को मजबूर नहीं करेगी।
इसके बाद उन्होंने इसका विरोध न करते हुए एवं सन 1946 में बंगाल के विभाजन के पक्ष में बात करते हुए कहा कि मुस्लिम पूर्वी पाकिस्तान के अलग राज्य में रह सकते हैं। इसके बाद देश में काफी हिंसा हुई और हिन्दू महासभा का अध्यक्ष होने के कारण उनकी बहुत आलोचना की गई।

पहली कैबिनेट के सदस्य एवं इस्तीफा
15 अगस्त 1947 को जब भारत आजाद हो गया, तब उन्हें कांग्रेस द्वारा भारत की पहली कैबिनेट का सदस्य बनाया गया था। उन्होंने यह प्रस्ताव स्वीकार किया और वे उद्योग एवं सप्लाई मंत्री बने। इस कार्यकाल में उन्होंने भारत के औद्योगिक विकास के लिए आधारशिला रखी। सन 1950 में उन्होंने प्रसिद्ध चितरंजन लोकोमोटिव कार्यों और सिंदरी फ़र्टिलाइज़र फैक्ट्री की स्थापना की. उन्हें लोग बहुत पसंद करते थे, लेकिन उनके और जवाहरलाल नेहरु के बीच मतभेदों के चलते उन्होंने 6 अप्रैल सन 1950 को इस पद से इस्तीफा दे दिया। दरअसल नेहरु जी ने आयोगों और अल्पसंख्यक अधिकारों के मुद्दे पर चर्चा करने के लिए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को निमंत्रण भेजा था, और मुखर्जी जी का मानना था कि लोगों का पूर्वी बंगाल से पश्चिमी बंगाल में जाने का जिम्मेदार पाकिस्तान था। उन्होंने यह भी माना कि पूर्वी पाकिस्तान द्वारा की गई हिंसा सरकार द्वारा पाकिस्तान का समर्थन करने का ही परिणाम था। फिर उन्होंने फैसला लिया कि वे कांग्रेस पार्टी से अलग हो जायेंगे। उनके द्वारा किये गये कार्य से उन्हें पश्चिम बंगाल के नायक के रूप में सम्मानित किया जाता था।

भारतीय जन संघ
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को छोड़ने के बाद उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समर्थन के साथ अपनी एक नई पार्टी भारतीय जन संघ का निर्माण किया. इस पार्टी ने देश में हिन्दू राष्ट्रवाद का समर्थन किया। हालांकि वे मुसलमानों के खिलाफ भेदभाव में विश्वास नहीं करते थे, और इसलिए उन्होंने हिन्दुओं और मुस्लिमों दोनों के लिए एक ही सिविल कोड का पालन किया। इसके बाद सन 1952 में संसद के लिए चुनाव हुए, वे उत्तरी कलकत्ता से चुनाव में खड़े हुए. किन्तु कांग्रेस को हराने के लिए उन्हें गठबंधन करना पड़ा और संसद में वे विपक्ष के नेता चुने गये।

कश्मीर में एंट्री
मुखर्जी जी जम्मू-कश्मीर की स्थिति अच्छी नहीं होने कारण काफी परेशान थे. उस समय एक नियम लागू किया गया था कि बिना प्रधानमंत्री की अनुमति कोई भी व्यक्ति जम्मू-कश्मीर में प्रवेश नहीं कर सकता फिर चाहे वह देश के राष्ट्रपति ही क्यों न हो। किन्तु वे इस नियम का विरोध करते हुए सन 1953 में वे कश्मीर गये. वहां की स्थिति भारत के अन्य राज्यों से बिलकुल अलग थी। उस समय वहां के मुख्यमंत्री सादर-ए-रियासत थे। मुखर्जी जी ने वहां एक बहुत बड़ी सभा को संबोधित किया, और कश्मीर के लोगों को आश्वासन दिया कि जम्मू-कश्मीर में भी वही संविधान लागू होगा जो भारत के अन्य राज्यों में होता है। उन्होंने यह कहा कि ‘मैं ऐसा करके रहूँगा या इसके लिए अपना जीवन दे दूंगा”।
मृत्यु
राज्य के अधिकारियों की अनुमति के बिना सीमा पार करने के कारण उन्हें 11 मई 1953 को हिरासत में ले लिया गया. कहा जाता है कि उन्हें पुलिस कर्मियों द्वारा एक कॉटेज में रखा गया था, जहाँ 22 जून को उनका स्वास्थ्य ख़राब हुआ और उन्हें तुरंत ही अस्पताल ले जाया गया. किन्तु अगले ही दिन 23 जून को वे स्वर्गवासी हो गए. कुछ लोगों का कहना है कि उनकी मृत्यु के पीछे कोई गहरी साजिश है, इसलिए इनकी मृत्यु की कहानी अभी भी रहस्य बनी हुई है>

विरासत
मुंबई में छत्रपति शिवाजी संग्रहालय और रीगल सिनेमा के चौराहे पर स्थित एक जंक्शन का नाम श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नाम पर रखा गया है।
अहमदाबाद नगर निगम ने 27 अगस्त 1998 को एक पुल का उद्घाटन किया था, जोकि मुखर्जी जी को समर्पित किया गया।
भारत में सीएसआईआर ने पीएचडी डिग्री को आगे बढ़ाने के इच्छुक उम्मीदवारों के लिए सन 2001 में इनके नाम पर फ़ेलोशिप की घोषणा की। दिल्ली की सबसे ऊँची 650 करोड़ की नव निर्मित ईमारत, जिसमें दिल्ली नगर निगम की कई शाखाओं के कार्यालय हैं, उसे 22 अप्रैल 2010 को ‘डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी सिविल सेंटर’ नाम दिया गया।

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