प्रतीक तिवारी
श्रावण मास शिव के प्रिय महीनों में से सबसे उत्तम मास है। शास्त्रों के अनुसार, श्रावण मास की उत्पति श्रवण नक्षत्र से हुई है। श्रवण नक्षत्र का स्वामी चंद्रमा को माना गया है और चंद्रमा शिवजी के माथे पर विराजमान हैं। श्रवण नक्षत्र को जलतत्व का कारक माना गया है। जल शिवशंकर को अत्यंत प्रिय है। चूंकि धरती पर अवतरित होने से पहले गंगा मैया भोले बाबा की जटाओं में समाई थीं। इसीलिए मान्यता है कि इस महीने में गंगाजल एवं अन्य पवित्र और शुद्ध जल से शिवालयों में जलाभिषेक करने से शिवशंकर अति प्रसन्न होते हैं और भक्तों की हर मनोकामना पूर्ण होती। सावन मास को अत्यधिक वर्षा का समय माना गया है। अत्यधिक वर्षा से जल प्रलय का भी खतरा रहता है, इसलिए यह मान्यता है कि सावन मास में शिवलिंग पर जलाभिषेक का बहुत महत्व हैं ताकि शिव जल प्रलय से धरती को बचाये रखें। वर्षा ॠतु का यह महीना पृथ्वी को हरियाली से भर देता है और प्रकृति अनुपम श्रृंगार से अलंकृत हो जाती है। हर वृक्ष नये और हरे पल्लवों से भरे रहते हैं और यहीं भांग, धतुरा और विल्वपत्र जो शिव को परमप्रिय इस सावन में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध रहता हैं। श्रावण मास में शिवजी को अनेक प्रकार से प्रसन्न करने के लिए अनेक विधियां हैं, शिवार्चन, पार्थिव पूजन, रुद्राभिषेक, जलाभिषेक, भजन, शिवगीत और अनेक लोक परंपराएं जो हमें और हमारे सनातन परंपरा को और भी शिव के सानिध्य में ले आती हैं। सावन में पूजन विधि और परंपरा कैसी भी हो पर सबका बस एक ही मकसद है, शिव की प्रसन्नता।
श्रावण में जलाभिषेक को सबसे सर्वोत्तम और पुण्यफल फलदायी बताया गया है। इस बात को और भी बल प्रदान करती हैं शिवपुराण में उल्लेखित यह कथा। एक बार भगवान शिव और पार्वती हरिद्वार में गंगा के तट पर भक्तों की परीक्षा लेने के मकसद से बैठे। पार्वती मां ने सुंदर स्त्री का रूप धारण किया था, जबकि भगवान शिव ने कोढ़ी का। पार्वती के मोहनी रूप पर मुग्ध होकर वहां से गुजरने वाले लोगों ने उनसे पूछा कि आप इस कोढ़ी के साथ क्यों हैं? साथ छोड़ क्यों नहीं देतीं? पार्वती मां ने उत्तर दिया कि मैं एक ऐसे व्यक्ति की तलाश में हूं, जिसमें एक हजार अश्वमेघ यज्ञ करने की शक्ति हो। वह यदि मेरे पति को छू देंगे, तो इनकी बीमारी ठीक हो जाएगी। यहां इसलिए बैठी हूं कि जिस किसी शख्स में एक हजार अश्वमेध यज्ञ करने की शक्ति हो और वह मेरे पति को स्पर्श कर देगा तो उनका कोढ़ ठीक हो जाएगा।
पार्वती के प्रश्न से लोग निरुत्तर होकर आगे बढ़ते रहे। तभी शिव वेषधारी एक ब्राह्मण ने यह बात सुनी, तो उसने तुरंत ही कोढ़ी के रूप में पार्वती के साथ विराजमान शिव को स्पर्श कर लिया। उनका कोढ़ ठीक हो गया। पार्वती ने आश्चर्यचकित होकर पूछा कि आपने इतने अश्र्वमेध यज्ञ कैसे किए। ब्राह्मण ने जवाब दिया कि मैं कई वर्षों से श्रावण मास में हरिद्वार स्थित गंगा के तट से गंगाजल लेकर शिव का जलाभिषेक करता आ रहा हूं। गंगाजल से शिव जलाभिषेक करने की कामना के साथ एक कदम हरिद्वार गंगा तट की ओर बढ़ाने से 1000 अश्र्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है, इसीलिए मैं कई वर्षों से हरिद्वार आ रहा हूं। मुझे पता है कि मुझे इसका पुण्य अवश्य मिलता होगा। इसीलिए मैंने आपके पति को स्पर्श किया और उनका कोढ़ ठीक हो गया।
ब्राह्मण की बात सुन भगवान शिव और माता पार्वती ने उन्हें साक्षात दर्शन और आशीर्वाद दिया। मान्यता यह भी है कि तभी से श्रावण मास में हरिद्वार से गंगाजल लेकर या अन्य पवित्र नदियों से पवित्र जल को लेकर भोलेनाथ के किसी भी शिवलिंग का जलाभिषेक करना अत्यंत फलदायी होता है। इसीलिए श्रावण मास में हमारे देश में कांवड़ यात्रा का बहुत महत्व है।
कांवड़ यात्रा की शुरुआत को लेकर हैं कई मान्यताएं
कांवड़ यात्रा को लेकर कई तरह की मान्यताएं प्रचलित हैं। कहा जाता है कि सबसे पहले त्रेतायुग में श्रवण कुमार अपने माता- पिता की इच्छा पूरी करने के लिए कांवड़ यात्रा की थी। वे माता-पिता को कांवड़ में बैठाकर हरिद्वार ले गए थे और वहां जाकर उन्होंने माता-पिता को गंगा में स्नान करवाया और वापस लौटते समय श्रवण कुमार गंगाजल लेकर आए और उन्होंने व उनके माता-पिता ने इस जल को शिवलिंग पर चढ़ाया। तभी से कांवड़ यात्रा की शुरुआत हुई। इसके अलावा कुछ लोगों का मत है कि सबसे पहले भगवान परशुराम ने गढ़मुक्तेश्वर से गंगा जल भरकर शिवलिंग पर चढ़ाया था। इसके बाद कांवड़ यात्रा शुरू हुई।
कांवड़ यात्रा एक साधना
कांवड़ यात्रा एक साधना है, जो महादेव के प्रति भक्त की निष्ठा को दर्शाती है। सावन के महिने की गर्मी के साथ बारिश की बौछार हो या बिजली की गरज-चमक कांवड़िए बस भगवान शिव को जल्द से जल्द गंगा जल अर्पित करने की लालसा से आगे बढ़ते चले जाते हैं और महादेव का जलाभिषेक करके अपने इस कठिन संकल्प को पूर्ण करते हैं। कांवड़ यात्रा बाबा वैघनाथ की हो या नीलकंठ महादेव या किसी भी शिवालय पर कांवड़ से जलाभिषेक करने की महिमा और महत्व सबका बराबर ही है।
आज के समय में कांवड़ यात्रा कई तरह से की जाने लगी है, लेकिन वास्तव में कांवड़ यात्रा पैदल की जाती है और यात्रा के दौरान भक्तों को कड़े नियमों का पालन करना होता है। कांवड़ यात्रा के दौरान भक्तों को सात्विक भोजन करना होता है। मांसाहार और शराब आदि के सेवन से बचना होता है। रास्ते में कहीं भी कांवड़ जमीन पर नहीं रखी जाती। विश्राम के समय भी कांवड़ को पेड़ पर लटकाना होता है। अगर कांवड़ को नीचे रखा तो उसका उद्देश्य सफल नहीं हो पाता। ऐसे में दोबारा गंगाजल भरकर यात्रा शुरू करनी पड़ती है। कांवड़ यात्रा के दौरान आपने जिस मंदिर में अभिषेक करने का संकल्प लिया है, वहां तक आपको पैदल चलकर जाना होता है। कहा जाता है कि कांवड़ यात्रा नियमों के साथ पूरी करने पर मन्नत जरूर पूरी होती है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)