बहूनि सन्ति तीर्थानि, दिवि भूमौ रसातले।

बदरी सदृशं तीर्थ, न भूतं न भविष्यति।।

अर्थात धरती पर प्रत्येक दिशा और स्थान में बहुत से तीर्थ हैं लेकिन बदरीनाथ जैसा तीर्थ न तो पहले कभी था और न भविष्य में होगा।

उत्तराखण्ड के चमोली जिले में स्थित बदरीनाथ मन्दिर भारत के चार प्रमुख धामों में से एक है। श्री बदरीनाथ धाम अलकनन्दा नदी के बांये तट के किनारे बसा हुआ है और इसकी स्थिति दो पर्वत श्रृंखलाओं के बीच है जिन्हें नारायण श्रेणी कहा जाता है। बदरीनाथ मन्दिर श्रद्धालुओं के लिए बहुत विशेष महत्व रखता है इस मन्दिर में बदरीनारायण के रूप में भगवान विष्णु की पूजा की जाती है। यह मन्दिर ऋषिकेश से लगभग 280 किलोमीटर दूर… समुद्री तल से लगभग 3133 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है।

‘जो जाए बदरी, वो ना आए ओदरी’

बदरीनाथ धाम के बारे में मान्यता है कि ‘जो जाए बदरी, वो ना आए ओदरी।’ अर्थात जो व्यक्ति बदरीनाथ जी के दर्शन कर लेता है, उसे पुनः माता के उदर अर्थात गर्भ में पुन: नहीं आना पड़ता। 

हिन्दू शास्त्रों में बताया गया है कि मनुष्य को जीवन में एक बार श्री बदरीनाथ जी का दर्शन अवश्य करना चाहिए। शास्त्रों और पुराणों में बदरीनाथ को दूसरा बैकुण्ठ कहा जाता है। एक बैकुण्ठ क्षीर सागर है जहां भगवान विष्णु निवास करते हैं और भगवान विष्णु का दूसरा निवास बदरीनाथ है जो धरती पर है। बदरीनाथ के बारे में यह भी मान्यता है कि यह कभी भगवान शिव का निवास स्थान था। लेकिन भगवान विष्णु को प्रिय लगने पर भगवान शिव ने उन्हें भगवान विष्णु को भेंट कर दिया था। 

कैसे पड़ा बदरीनाथ नाम

श्रीबदरीनाथ धाम का नाम बदरीनाथ कैसे पड़ा इसके बारें में मान्यता है कि एक बार देवी लक्ष्मी भगवान विष्णु से रूठ कर मायके चली गई, तब भगवान विष्णु यहां आकर तपस्या करने लगे। जब देवी लक्ष्मी की नाराजगी दूर हुई तो वह भगवान विष्णु को खोजते हुए यहां आईं। उस समय यहां बदरी का वन यानी बेर फल का जंगल था। बदरी के वन में बैठकर भगवान ने तपस्या की थी इसलिए देवी लक्ष्मी ने भगवान विष्णु को बदरीनाथ नाम दिया।

बदरीनाथ क्षेत्र मां सरस्वती नदी का उद्गम स्थल है। यह बदरीनाथ मन्दिर से लगभग तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित माणा गांव में स्थित है। सरस्वती नदी अपने उद्गम से कुछ किलोमीटर बाद ही माँ अलकनंदा में विलीन हो जाती है। 

बदरीनाथ मन्दिर में वर्ष में छह माह तक ही पूजा व दर्शन का विधान है जबकि शेष 6 माह के लिये यह शीतावकाश में बन्द रहता है। शीतकाल में यह धाम 10 से 15 फीट बर्फ से ढक जाता है। शीतकाल में श्री बदरीनाथ जी की पूजा 55 किमी दूर जोशीमठ में होती है। शीतकाल में श्री बदरीनाथ जी के कपाट बंद होते हैं तब उनकी उत्सव मूर्ति जो कि उद्धव जी की मूर्ति है, लक्ष्मी जी के साथ पाण्डुकेश्वर में स्थापित कर दी जाती है। मन्दिर के कपाट खुलने से उत्सव डोली के साथ बदरीनाथ जी यहां पधारते हैं। मन्दिर के कपाट मन्त्रोचार के साथ खुलने के समय वहां पर टिहरी नरेश के प्रतिनिधि उपस्थित रहते हैं। 

मन्दिर समीप स्थित मूतिर्यों का धार्मिक एवं पौराणिक महत्व

बदरीनाथ मन्दिर के समीप एवं मन्दिर परिसर में कई मूतिर्यों का धार्मिक एवं पौराणिक महत्व है। मन्दिर के बाहर समीप में आदिकेदारेश्वर मन्दिर है। इसका वर्णन स्कन्द पुराण में भी है जो श्रद्धालु केदारनाथ जाने में सक्षम नहीं हैं वे यहां दर्शन लाभ ले सकते हैं। 

मन्दिर के प्रवेश सिंह द्वार के समीप गरुड़ की मूर्ति है जो भगवान विष्णु के वाहन हैं। परिक्रमा पथ पर गणेश जी की मूर्ति स्थित है। कपाट खुलने पर प्रथम पूजा गणेश जी की होती है। मन्दिर के परिक्रमा पथ में दक्षिणमुखी हनुमान जी की मूर्ति है। परिसर में ही महालक्ष्मी जी का मन्दिर भी है। जब नारायण यहां पर तपस्यारत थे लक्ष्मी जी ने बदरी की झाड़ी के रूप में उनको संरक्षण प्रदान किया था। अन्दर ही शंकराचार्य की गद्दी है जो कपाट बंद होने पर जोशीमठ में 6 माह के लिये स्थापित की जाती है व खुलने पर इसे मन्दिर परिसर में स्थापित किया जाता है। पीछे एक पत्थर पर शेषनेत्र की आकृति है। नदी की धारा के कुछ विपरीत चल कर एक चबूतरा ब्रह्मकपाल है। यहां पर सनातनी हिन्दू पूर्वजों कीआत्मा की मुक्ति के लिये पिण्डदान करवाते हैं। पिण्डदान हेतु इसका महत्व गया जी से अधिक माना गया है। यही समीप में धर्मशिला है जहां गौ-दान की क्रिया होती है।

बसुधारा प्रपात

बदरी क्षेत्र में ही माणा गांव से लगभग 5 किमी की दूरी पर बसुधारा प्रपात है यहां पर जलधारा 500 फीट की ऊंचाई से गिरती है। कहा जाता है कि इसी स्थान पर अष्ट वसुओं ने तपस्या की थी।

मान्यता है कि जिसके ऊपर इसकी बूंदें पड़ जायें उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। यहाँ स्थित सतोपंथ वह स्थान है जहाँ से राजा युधिष्ठिर ने स्वर्ग को प्रस्थान किया था। इसे धन के देवता कुबेर का भी निवास भी स्थान माना जाता है। यहां पर सतोपंथ झील है जो बदरीनाथ धाम से 24 किमी. दूर है। यहीं से अलकनंदा नदी का उद्गम होता है। श्री बदरीनाथ जी भारत की हजारों वर्ष प्राचीन सनातन संस्कृति का ऊर्जा केंद्र है।

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