-प्रतीक खरे
किसी घटना के कारण कुछ तिथियां इतनी महत्वपूर्ण बन जाती हैं कि वह आगे आने वाले समाज को न सिर्फ निरंतर प्रभावित करती रहती हैं, बल्कि आत्म अवलोकन करते हुए मानवता के प्रति अपने दायित्वों का भी बोध कराती हैं। 11 सितम्बर उन्हीं विशिष्ट तिथियों में से एक है, जब वर्ष 1893 में इस दिन युवा संन्यासी स्वामी विवेकानंद ने विश्व धर्म सम्मेलन में ऐतिहासिक वक्तव्य दिया था। एक प्रबोधन कैसे राष्ट्र और समाज की वैश्विक छवि बदल देता है यह वक्तव्य इसका एक जीवंत उदहारण है। स्वामी उन सभी विवेकानंद का वक्तव्य ऐसा ही था, जिसने भारत के बारे में मिथ्या संकल्पनाओं को तोड़ दिया जो पश्चिमी जगत ने गढ़ रखी थी।

विवेकानंद के उस ऐतिहासिक भाषण से भारतीय ज्ञान को वैश्विक स्वीकार्यता तो मिली ही, उन्होंने भारतीय ज्ञान परंपरा और सनातन संस्कृति को वैश्विक पटल पर सफलतापूर्वक प्रतिष्ठित किया जिसका मुख्य आधार थी सहिष्णुता। यह दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि स्वाधीन हो जाने के बाद छद्म पंथनिरपेक्षता के कारण न सिर्फ स्वामीजी के विचारों से जनमानस को दूर किया गया, बल्कि भारतीय ज्ञान परम्परा को तिरोहित कर पश्चिमी ज्ञान को भारतीय जनमानस पर थोपा गया । सत्य को थोड़े समय के लिए दबाया जा सकता है, पर समाप्त नहीं किया जा सकता।
विवेकानंद जी का अमेरिका दौरा चुनौतीपूर्ण रहा। परंतु भारतीय ज्ञान पर अटूट विश्वास और उनके गुरु संत रामकृष्ण परमहंस के शुभ आशीष ने उन्हें अंतिम सिद्धि तक पहुंचा दिया।

जब संबोधन का प्रारंभ विवेकानंद जी ने ‘अमेरिका के मेरे भाइयो और बहनो’ से किया तो सभा अचानक ऊर्जावान होकर करीब 2 मिनट तक करतल ध्वनि से भारत के इस संन्यासी प्रतिनिधि का अभिनंदन करती रही। उसके बाद उनके भाषण ने न केवल सम्मेलन की दशा और दिशा बदल दी, बल्कि सम्मेलन के अगले सत्र में दर्शकों के अनुरोध पर उन्होंने लगभग बारह बार भारत की ज्ञान परम्परा के साथ सभा को संबोधित किया। उन्होंने अपने वक्तव्य से सम्पूर्ण विश्व का ध्यान आकर्षित किया। उनकी दो बातें तो वर्तमान राजनीतिक माहौल को भी सोचने के लिए प्रेरित करती है। पहला भारतीय राष्ट्र की धार्मिक सहिष्णुता और दूसरा कन्वर्जन अर्थात मतान्तरण।

विवेकानंद ने अपने भाषण में हिन्दू धर्म एवं भारतीय समाज की धार्मिक सहिष्णुता को मुख्य आधार बनाया। उनके अनुसार यही सबसे प्रमुख गुण है जिसके कारण भारतीय सभ्यता अब तक चली आ रही है। लेकिन वर्तमान में संकुचित वैचारिक मानसिकता वाले लोगों ने समाज को असहिष्णु घोषित करने का बीड़ा उठा लिया है। इसका व्यापक एवं वैचारिक प्रत्युत्तर विवेकानंद के भाषण में मिलता है। उन्होंने कहा था- मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहनशीलता का मंत्र दिया। भारत न सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में विश्वास रखता है, बल्कि विश्व के सभी मत-पंथों को स्वीकार करता है। एक ऐसा देश जिसने सभी देशों और विभिन्न मत-पंथ के लोगों को शरण दी। अभी तक भारत ने ही इस्रायल की स्मृतियां संजोकर रखी हैं, जबकि रोमनों ने उनके पवित्र स्थलों को आक्रमण कर खंडहर बना दिया। विवेकानंद के सहिष्णुता के तर्क को उस कालखंड में विश्व ने स्वीकार किया। लेकिन हम भारत के लोग ही उसे भूल गए। यही कारण है कि आज देश के तथाकथित बुद्घिजीवी एवं राजनीतिक दल सरकार का विरोध करने के चक्कर में भारत के मौलिक मूल्यों पर प्रश्न खड़ा करते हुए हिन्दू समाज को असहिष्णु घोषित कर देते हैं।
सहिष्णुता हमेशा से भारतीय समाज का अभिन्न अंग रही है, जिस आधार पर यहां ज्ञान, धर्म आदि विकसित होते रहे हैं। भारत को समझने के लिए पश्चिमी ज्ञान की आवश्यकता नहीं है, बल्कि इस देश की ज्ञान परंपरा को पुन:स्थापित करने वाले स्वामी विवेकानंद की दृष्टि से भारत की राष्ट्रीय चेतना को देखने का प्रयत्न किया जाना चाहिए, जिससे स्वत: भारतीय समाज में सहिष्णुता दिखाई देगी।
भारत के तेज और ज्ञान के प्रतीक युवा संन्यासी स्वामी विवेकानंद को कोटि-कोटि नमन है।

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