-प्रतीक खरे
17 सितम्बर 1948 ही वो दिनांक है जब हैदराबाद के निजाम मीर उस्मान अली खान ने भारतीय सेना के ऑपरेशन पोलो के समक्ष आत्मसमर्पण किया था। निजाम के आत्मसमर्पण के बाद हैदराबाद का भारतीय संघ में विलय हो गया।
लेकिन यह विलय इतना सरल नहीं था,विलय से पहले हैदराबाद में जो कुछ हुआ उसे चाहकर भी कभी भुलाया नहीं जा सकता। वास्तव में हैदराबाद एक ऐसा रजवाड़ा था जिसका शासक एक मुसलमान था परंतु राज्य में हिन्दू बहुसंख्यक थे। निजाम हिंदुओं से नफरत करता था। अपनी एक कविता में निजाम ने लिखा था। ‘मैं पासबाने दीन हूं, कुफ्र का जल्लाद हूं।’ अर्थात मैं इस्लाम का रक्षक हूं और हिंदुओं का भक्षक हूं। यह कविता यह बताते के लिए काफी है कि निजाम अपनी बहुसंख्यक हिन्दू प्रजा के बारे में क्या सोचता था?
हैदराबाद रियासत की लगभग 86 प्रतिशत जनसंख्या हिन्दू थी लेकिन प्रशासन के 75 प्रतिशत अधिकारी मुस्लिम थे और राज्य के सैन्यकर्मियों में भी 95 मुस्लिमों का होना कोई साधारण बात नहीं थी। यह मुस्लिम शासक की एक सोची समझी चाल और उसकी हिन्दू विरोधी रणनीति का हिस्सा थी। जिसकी तैयारी बहुत पहले से हो रही थी… राज्य और सेना के मुख्य पदों पर निजाम के एक इशारे पर कुछ भी कर सकने वाले उसके मुस्लिम वफादारों की ही नियुक्ति की गयी थी। हैदराबाद में उस दौरान कई शक्तियाँ संघर्ष कर रही थी लेकिन सब का टारगेट हिन्दू ही थे।
प्रसिद्द विचारक और लेखक के.एम. मुंशी ने अपनी पुस्तक ‘एक युग का अंत’ में हैदराबाद रियासत में हिन्दूओं पर हुए अत्याचारों पर प्रकाश डाला है। वह लिखते हैं कि हैदराबाद के एक सेवानिवृत्त अधिकारी महमूद नवाज खान ने उस दौरान मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुसलमीन की स्थापना की। इसका उद्देश्य राज्य में निज़ाम के समर्थन में मुसलमानों को एकजुट करना और बड़े पैमाने पर हिन्दुओं का इस्लाम में मतान्तरण करके हिन्दू बहुमत को कम करना था। वहीं राष्ट्रीयकरण के नाम पर सर अकबर ने हिन्दुओं द्वारा निर्मित कई औद्योगिक प्रतिष्ठानों में राज्य के लिए 51% हिस्सेदारी हासिल कर ली थी।
के.एम. मुंशी लिखते हैं कि एक वकील के रूप में मैं तथाकथित मध्यस्थताओं में से एक से चिंतित था, जिसके परिणामस्वरूप एक हिन्दू द्वारा चलाए जा रहे एक बड़े व्यवसाय को राज्य ने अपने कब्जे में ले लिया था।
निजाम ने पहली चाल के तहत गाँव-गाँव से हिंदुओं के हथियारों जमा करवाया, फिर उसने मुसलमानों को, हिंदूओं को गुलाम बनाने के अधिकार पर जोर दिया, जो उनके लिए कोई और नहीं बल्कि ‘काफिर’, ‘पत्थर और बंदर के उपासक’ थे।
निजाम द्वारा पोषित मुस्लिम कट्टरपंथी रजाकार जासूसी और प्रचार का स्कूल चलाते थे। कुछ प्रशिक्षु, ब्राह्मण पुजारियों के भेष में, गाँव में जाकर स्थानीय मस्जिद को नुकसान पहुँचाने थे और दंगा करते थे। भीड़ में छिपकर हिन्दुओं की हत्या करते थे। इसके बाद उनके घरों को लूट लेते और जला देते। कट्टरपंथी रजाकार हर वो कदम उठा रहे थे जो हैदराबाद को इस्लामिक स्टेट बनाने के लिए किया जा सकता था। हिन्दुओं की हत्या, लूट, महिलाओं के साथ सामूहिक दुष्कर्म करना उनके लिए आम बात थी। वह क्षेत्र में बाहरी मुस्लिम लोगों को भी बसा रहे थे ताकि राज्य में बहुसंख्यक हिन्दुओं को अल्पसंख्यक बनाया जा सके।
केएम मुंशी के अनुसार… 1946 तक इत्तेहाद ने अपना धर्मांतरण कार्य छोड़ दिया था, लेकिन निजाम की सरकार ने मस्जिदों को बड़े पैमाने पर अनुदान देना जारी रखा, जो पहले हिन्दुओं को असहाय करते फिर उन्हीं हिन्दुओं को इस्लाम में शामिल करने के लिए उकसाते। जहां यह नहीं किया जा सका वहाँ जोर-जबरदस्ती का पेंच लगाया गया। गांवों में गरीब हरिजनों के लिए ऐसे प्रलोभन और दबाव का विरोध करना कठिन था। क्योंकि उनके सामने परिस्थिति ही ऐसी बना दी जाती थी।
सिद्दीक ने मुस्लिमों से अपील की थी और कहा था। मेरे मुस्लिम भाइयों! कुरान ने आपको केवल एक ही चीज़ सिखाई है, वह यह है कि जिस देश में आप रहते हैं उसे पाकिस्तान में बदल दें। दूसरे शब्दों में, दूसरों को कुरान-ए-मजीद का पानी पीने के लिए मजबूर करना। एक चौथाई दूध और तीन चौथाई गोबर को शुद्ध नहीं कहा जा सकता।”
इसके बाद सिद्दीक ने अपनी धर्मांतरण गतिविधियों को ज़ोर-शोर से आगे बढ़ाना शुरू कर दिया। उसने हिन्दुओं के तीर्थस्थलों के खिलाफ जिहाद की घोषणा की। इसके साथ ही एक लाख लड़ाकों और इस उद्देश्य के लिए 5,00,000 रुपये के ऋण के लिए एक सार्वजनिक अपील भी की। लेकिन उसके खिलाफ अधिकारियों की ओर से कोई कदम नहीं उठाया गया। ज्यादा विरोध होने पर निज़ाम की सरकार ने सिद्दीक की गतिविधियों पर कुछ प्रतिबंध लगा दिया, लेकिन यह सिर्फ दिखावा था वह 1948 तक अपने एजेंडे पर लगा रहा।
अक्टूबर, 1947 से 3 अप्रैल 1948 (स्टैंडस्टिल समझौता) तक कम से कम 260 घटनाएं हुईं जिनमें रजाकारों ने अत्यंत क्रूरता के साथ काम किया। बहुत ही कम दिनों के भीतर, नौ गाँव जलकर राख हो गए, हजारों पुरुष मारे गए, असंख्य महिलाओं से रेप किया गया और सैकड़ों की संख्या में असंख्य घर और अनाज की दुकानें जला दी गईं। लेकिन बीदर जिले में गतिविधियां अपने चरम पर पहुंच गईं। यह सभी वह घटनाएं है जिन पर न तो कभी ज्यादा बात हुई और दुर्भाग्यपूर्ण रूप से हैदराबाद के इस काले इतिहास पर मिट्टी डालने का काम किया गया।
यदि सरदार पटेल ने दूरदर्शिता नहीं दिखाई होती और सही समय पर सही निर्णय लेते हुए भारतीय सेना को हैदराबाद मुक्ति के लिए हैदराबाद नहीं भेजा होता तो हिन्दुओं का यह नरसंहार अत्यंत वीभत्स रूप ले लेता, इस्लामिक स्टेट के रूप में हैदराबाद रियासत अर्थात वर्तमान आँध्रप्रदेश या तो पकिस्तान का अंग बन गया होता या फिर एक कैंसर के रूप में भारतवर्ष के लिए विभीषिका।