– प्रतीक तिवारी
सनातन संस्कृति में प्रथम पूज्य गणेश की महिमा अनंत है। गणाध्यक्ष विनायक (महागणपती) ने देवी पार्वती की श्रद्धा भक्ति से प्रसन्न होकर उनके पुत्र रूप में प्रकट होने का वरदान दिया। भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को भगवती पार्वती ने अपने शरीर के उतरें हुए उबटन से एक दिव्य प्रतिमा का निर्माण किया और अपने तपोबल से उसमें प्राण भर दिए। वह दिव्य बालक की प्रतिमा एक सुंदर बालक रूप में परिवर्तित हो गई और गणाध्यक्ष विनायक पार्वती नंदन के रूप में अवतरित हुए। तभी से भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को भगवान गणेश के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाने लगा।
भारत का महाराष्ट्र राज्य शिव, शक्ति और गणेश के जागृत स्थलों एवं तीर्थों के लिए विख्यात रहा है। यहां प्राचीन काल से ही गणेशजी की उपासना होते आई है। बताया जाता है कि महाराष्ट्र में सातवाहन, राष्ट्रकूट, चालुक्य आदि राजाओं ने गणेशोत्सव की प्रथा चलायी थी। छत्रपति शिवाजी भी गणेश उत्सव मनाया करते थे। कहते हैं कि पुणे में कस्बा गणपति नाम से प्रसिद्ध गणपति की स्थापना शिवाजी महाराज की मां जीजाबाई ने की थी, तब शिवाजी छोटे थे, आगे चलकर शिवाजी और पेशवाओं ने इस उत्सव को बढ़ाया, तब ये गणेश उत्सव घर-परिवार तक ही सीमित था और लोग 10 दिन के लिए अपने घर पर गणपति बिठाते थे, पूजा करते और फिर विसर्जन करते थे।
ब्रिटिश राज में सार्वजनिक उत्सव नहीं मनाये जाते थे लेकिन फिर लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने हिन्दुस्तानियों को एकजुट करने के बारे में सोचा। बताते हैं कि 1890 के दशक में स्वतंत्रता संग्राम के दौरान तिलक अक्सर चौपाटी पर समुद्र के किनारे बैठते और इसी सोच में डूबे रहते कि आखिर लोगों को जोड़ा कैसे जाए। अंग्रेजों के खिलाफ एकजुटता बनाने के लिए उन्होंने धार्मिक रास्ता चुना। तिलक ने सोचा कि क्यों न गणेशोत्सव को घरों से निकालकर सार्वजनिक स्थल पर मनाया जाए, ताकि इसमें हर जाति के लोग शिरकत कर सकें। पर्व को शुरू करने में तिलक को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा था।
गणेश पूजा को उन्होंने सार्वजनिक महोत्सव का रूप देते समय उसे केवल धार्मिक कर्मकांड तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि आजादी की लड़ाई, छुआछूत दूर करने, समाज को संगठित करने और आम आदमी का ज्ञान बढ़ाने का जरिया बनाया। साथ ही तिलक ने गणेश उत्सव को एक आंदोलन का स्वरूप दिया। इस आंदोलन ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया था।
आप कह सकते हैं कि लोकमान्य तिलक ने 1893 में जो पौधा लगाया था वो आज वट वृक्ष बन चुका है। मुंबई, पुणे या महाराष्ट्र से निकलकर पूरे देश में जिस तरह क्रांति फैली थी वैसे ही आजकल गणेश उत्सव भी मनाया जाता है। बताया जाता है कि केवल महाराष्ट्र में ही 50,000 से ज्यादा सार्वजनिक गणेश उत्सव मंडल हैं। इसके अलावा आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और गुजरात में काफी संख्या में गणेश उत्सव मंडल हैं। तिलक की क्रांति को बढ़ाने का काम और भी कई क्रांतिकारियों ने अपने तरीके से किया।
विनायक दामोदर सावरकर और कवि गोविंद ने नासिक में ‘मित्रमेला’ संस्था बनाई थी। इस संस्था का काम था देशभक्तिपूर्ण पोवाडे आकर्षक ढंग से बोलकर सुनाना यानी मराठी लोकगीतों के एक प्रकार पोवाडे की प्रस्तुति। इस संस्था के पोवाडों ने धूम मचा दी थी। कवि गोविंद को सुनने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती थी। वे राम-रावण की कथा के आधार पर लोगों में देशभक्ति का भाव जगाने में सफल हुए। उनके बारे में वीर सावरकर ने लिखा है कि कवि गोविंद अपनी कविता की अमर छाप जनमानस पर छोड़ जाते थे।
गणेशोत्सव का उपयोग आजादी की लड़ाई के लिए किए जाने की बात पूरे महाराष्ट्र में फैल गयी थी। बाद में नागपुर, वर्धा, अमरावती आदि शहरों में भी गणेशोत्सव ने आजादी का नया ही आंदोलन छेड़ दिया था। अंग्रेज भी इससे घबरा गये थे, इस बारे में रोलेट समिति की रिपोर्ट में भी चिंता जतायी गयी थी। कहा गया था कि गणेशोत्सव के दौरान युवकों की टोलियां सड़कों पर घूम-घूम कर अंग्रेजी शासन विरोधी गीत गाती हैं और स्कूली बच्चे पर्चे बांटते हैं, जिसमें अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ हथियार उठाने और मराठों से शिवाजी की तरह विद्रोह करने का आह्वान होता है।
साथ ही अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए धार्मिक संघर्ष को जरूरी बताया जाता है। गणेश उत्सवों में भाषण देने वाले प्रमुख राष्ट्रीय नेता थे – वीर सावरकर, लोकमान्य तिलक, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, बैरिस्टर जयकर, रेंगलर परांजपे, पंडित मदन मोहन मालवीय, मौलिकचंद्र शर्मा, बैरिस्टर चक्रवर्ती, दादासाहेब खापर्डे और सरोजिनी नायडू। गणेशोत्सव में देश भर के स्वातंत्र्य योद्धा, विचारक चिंतक द्वारा जा जाकर भाषण देने व जनजागरण करने का कार्य अद्भुत रूप से गति पकड़ चुका था। इन गणेश पंडालों में एक ओर रात्रि में ब्रिटिश शासन विरोधी, अस्पृश्यता विरोधी, जातिवादी विरोधी भाषण होते थे तो दिनभर भी बड़ी सक्रियता बनी रहती थी। दिन में यहां दंड (लाठी), मलखंभ, कुश्ती, तलवारबाजी, निशानेबाजी के प्रदर्शन व प्रशिक्षण होते थे।
गणेशोत्सव के इस बढ़ते स्वरूप से अंग्रेज घबराने लगे। रोलेट कमेटी ने इस पर चिंता व्यक्त की। रिपोर्ट में कहा गया था, गणेशोत्सव के दौरान युवकों और बच्चों की टोलियां सड़कों पर घूम-घूम कर अंग्रेज विरोधी गीत गाती हैं और पर्चे वितरित करती हैं। इन पर्चों में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध विद्रोह करने का संदेश होता था। स्वाधीनता आंदोलन को धर्म के माध्यम से एक नई शक्ति, संगठन व ऊर्जा देने की प्रेरणा दी जाती थी।
इस प्रकार गणेशोत्सव को प्रमुखतः लोकमान्य बालगंगाधर तिलक व वीर सावरकर द्वारा एक अभियान के रूप में स्थापित किया गया। स्वाधीनता आंदोलन को गति देने व समूचे राष्ट्र को जागृत करने के गुण के कारण यह उत्सव सर्वधर्म प्रिय राष्ट्रीय उत्सव बन गया था। स्वराज के ध्येय को इन गणेश पंडालों के माध्यम से ही राष्ट्रीय ध्येय बना दिया गया और अद्भुत समाज जागरण का कार्य हुआ।
आज हमारे देश के हर प्रदेशों में गणपति जन्मोत्सव (गणेशोत्सव) बढ़ी धूम-धाम से और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। विदेशों में भी गणेशोत्सव मनाया जाने लगा है। आज महाराष्ट्र का यह लोक उत्सव विश्वव्यापी उत्सव बनने के बहुत करीब है।