-प्रतीक खरे
भारत को यूं ही विश्व गुरु नहीं कहा जाता, इसमें भारतीय सन्त परम्परा का विशेष योगदान है। यहाँ एक ओर ईसाई मिशनरी और मौलाना धर्म प्रचार के नाम पर मतान्तरण, शिक्षा के नाम पर शोषण और सेवा के नाम पर सांस्कृतिक का विनाश किया, साथ ही प्रलोभन, डरा धमकाकर अनेक प्रकार से मतान्तरण का कुचक्र चलाने का कार्य किया।
इन्होंने भारत और उससे पहले यूरोप, उत्तरी अफ्रीका के समृद्ध सांस्कृतिक विविधता का विनाश किया जिनमें यूनानी, मिस्री, कैल्टिक, गोथिक, वाइकिंग और रोमा सहित सैकड़ों सभ्यताएं हैं। इन सभी लोगों को क्रूरतम तरीके से खत्म करने का काम कर रहे थे, जो कि उनकी परम्परा है।
जब मतान्तरण और राज्य-साम्राज्य स्थापना के उद्देश्य से जड़ें जमा चुके मुस्लिम आक्रांता भारतीय समाज को संस्कृतिच्युत और अस्मिताहीन करने पर आमदा था तब जहाँ एक ओर भारतीय वीर माँ भारतीय के लिए लड़ रहे थे तो दूसरी ओर संत-कवियों ने पूरी शक्ति से इस आंधी का सामना किया तथा भारतीय आस्था को डिगने नहीं दिया और भारतीय सन्त जनमानस को उसकी मूल धार्मिकता, आध्यात्मिकता एवं सांस्कृतिकता से जोड़ने के साथ ही आडंबरों, असामजिक उच्छृंखलताओं, छुआछूत, अंधविश्वास, मतान्तरण के खिलाफ भी लोगों को जागरूर करने का भी प्रमुख कार्य किया।
यही कारण है भारतीय इतिहास और राजनीति की पराजय संस्कृति या अस्मिता की पराजय नहीं बन सकी। इस सबका श्रेय हमारे भक्त कवियों और संत परम्परा को जाता है।
इसी परम्परा के वाहक थे सन्त नारायण गुरु, जिन्होंने भारत में सामाजिक पुनर्जागरण के साथ-साथ केरल में सामाजिक सुधार के लिए आध्यात्मिक नींव स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। साथ ही समाज में जातिगत भेदभाव को दूर करने तथा आपसी संघर्ष के बिना सामाजिक मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने में अहम भूमिका निभाई।
नारायण गुरु ने अपना सारा जीवन विचरण करते हुए एक संन्यासी के रूप में निर्वाह किया। अपनी यात्रा के दौरान नारायण गुरु दो गुरुओं चेट्टंबी स्वामी और थिक्कड़अय्यावु के संपर्क में आए, जिन्होंने उन पर गहरी छाप छोड़ी। अपने गुरु से प्रेरित होकर नानू आसन ने ‘नव मंजरी’ (नौ छंदों की एक शृंखला) लिखी। अपनी कविताओं को उन्होंने चेट्टंबी स्वामी को समर्पित किया। अपने प्रवास के दौरान वह मारुथवामला स्थित पिल्लथदम गुफा पहुंचे। जहां उन्होंने एक आश्रम स्थापित कर ध्यान और योग का अभ्यास किया।
नारायण गुरु ने अपने उपदेशों के माध्यम से समाज को समानता का पाठ पढ़ाया किन्तु साथ ही साथ उन्होंने यह भी अनुभव किया कि धर्मांतरण करने के लिए असमानताओं का अनुचित लाभ नहीं उठाया जाना चाहिए और इसलिए समाज में संघर्ष नहीं पैदा करना चाहिए।
इसके लिए उन्होंने वर्ष 1923 में “बहस करने और जीतने के लिए नहीं बल्कि जानने के लिए और ज्ञात करने के लिए” के नारे के साथ एक अखिल क्षेत्र सम्मेलन का आयोजन किया, जो भारत में इस तरह का पहला आयोजन था। जो कि यह मतांतरण का मुकाबला करने का प्रयास था। इसके साथ ही श्री नारायण गुरु ने अपने जीवन कार्य में कई समाजिक कार्य किए जिसमें जातिगत भेदभाव का विरोध, शराब बन्दी, पशुबली बन्दी है। इसके साथ ही उन्होंने त्रिशूर, कन्नूर, अंचुथेंगु, थालास्सेरी, कोझीकोड और मैंगलोर जैसे अन्य स्थानों में कई मंदिरों का निर्माण करवाया।
वर्ष 1904 में उन्होंने अपना केंद्र वरकला के पास शिवगिरी में स्थानांतरित कर दिया। जहां उन्होंने समाज के निम्न वर्ग के बच्चों के लिए एक स्कूल खोला और जहां वह उनकी जाति पर विचार किए बिना उन्हें मुफ्त शिक्षा प्रदान करते थे।
वर्ष 1922 में नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ टैगोर ने नारायण गुरु जी से मुलाकात करने के बाद कहा था कि “मैंने विश्व के विभिन्न हिस्सों का दौरा किया है किन्तु मैं कभी भी ऐसे व्यक्ति से नहीं मिला हूं जो आध्यात्मिक रूप से श्री नारायण गुरु के कद से बड़ा हो।
अन्तिम समय में प्रेम और मानवता के प्रसार की लंबी यात्रा के बाद वह सारदा मठ लौट गए और यहीं पर उन्होंने 73 साल की उम्र में 20 सितम्बर वर्ष 1928 को अपना नश्वर शरीर छोड़ दिया।
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