संत समाज की धरोहर होते हैं, वह किसी जाति या समुदाय के नहीं बल्कि समस्त मानव जाति के कल्याण के लिए अपना संदेश देते हैं। भारतीय सन्त परम्परा में बारहवीं और तेरहवीं शताब्‍दी में ऐसे अनेक सन्त हुए जिन्होंने भक्ति आन्दोलन के माध्यम से समाज को नई दिशा दिखाई और समाज को जोड़ने का कार्य किया। उसी सन्त परम्परा में एक संत हुए जिनका नाम था संत नामदेव। जिन्‍होंने अपनी रचनाओं के माध्‍यम से भगवान की स्‍तुति के भक्ति गीतों पर बल दिया।

संत नामदेव जी का जन्म 1270 ई. में महाराष्ट्र के सातारा जिला में नरसी बामनी गांव में हुआ था। नामदेव बाल्यकाल से ही भगवान विट्ठल के भक्त थे। उन्हें यह उपासना विरासत में मिली थी क्योंकि उनका परिवार भगवान विठ्ठल के उपासक थे। उनके पिता दामाशेटी और माता गोणाई देवी है। गुरु का नाम विसोबा खेचर था।

नामदेव के गुरु विसोबा खेचर थे, जिसका उल्लेख गुरुग्रंथ और सन्त कबीर के भजनों में मिलता है। गुरु विसोबा खेचर ने ब्रह्मविद्या को लोक सुलभ बनाकर उसका महाराष्ट्र में प्रचार किया तो वहीं सन्त नामदेव ने महाराष्ट्र से लेकर पंजाब तक उत्तर भारत में ‘हरिनाम’ की वर्षा की। 

भक्त नामदेव जी के महाप्रयाण से तीन सौ साल बाद श्री गुरु अरजनदेव जी ने उनकी बाणी का संकलन श्री गुरु ग्रंथ साहिब में किया। श्री गुरु ग्रंथ साहिब में उनके 61 पद, 3 श्लोक, 18 रागों में संकलित है। 

वास्तव में श्री गुरु साहिब में नामदेव जी की वाणी अमृत का वह निरंतर बहता हुआ झरना है, जिसमें संपूर्ण मानवता को पवित्रता प्रदान करने का सामर्थ्य है। ‘मुखबानी’ नामक ग्रंथ में उनकी कईं रचनाएं संग्रहित हैं। पंढरपुर में विट्ठल मन्दिर के प्रवेश द्वार की प्रथम सीढ़ी नामदेव जी की पायरी के नाम से प्रसिद्ध है…

उनके जीवन के एक रोचक प्रसंग के अनुसार एक बार जब वे भोजन कर रहे थे, तब एक श्वान आकर रोटी उठाकर ले भागा। तो नामदेव जी उसके पीछे घी का कटोरा लेकर भागने लगे और कहने लगे ‘हे भगवान, रुखी मत खाओ साथ में घी लो।’ विश्व भर में उनकी पहचान ‘संत शिरोमणि’ के रूप में जानी जाती है। 

पंजाब में नामदेव महाराज का मंदिर नामदेव गुरुद्वारा के नाम से जाना जाता है। जहां बड़ी श्रद्धा के साथ हिन्दू सिख आज भी दर्शन करने जाते है।

सामाजिक समरसता हेतु नामदेव जी ने भाषावाद समाप्त किया। नामदेव जी जानते थे कि मराठी अभंग केवल महाराष्ट्र में ही समझे जाएंगे। अतः उन्होंने राष्ट्रभाषा हिन्दी एवं पंजाबी में अपने अभंग लिखना एवं गाना प्रारंभ, जिसे पंजाबी में भाबद कहा गया। गुरुवाणी में उनके साठ दोहे लिपिबद्ध है। इनके दोहों का भाबद कीर्तन में अपना अलग स्थान है। इससे अच्छा उस समय का सामाजिक समरसता का उदाहरण कोई नहीं हो सकता। जहां भाषावाद को मिटाकर एक संत ने सम्पूर्ण भारत में अपना वाणी के माध्यम से धर्म एवं भक्ति को जन जन तक फैलाया एवं समरसता को स्थापित किया।

उनका मानना था कि समाज में समरसता होना चाहिए न कि ऊंच-नीच, भेदभाव। इस प्रकार उन्होंने जातिवाद से बड़ा अपना कर्तव्य बताया है। 

संत नामदेव लगभग 20 से 22 वर्ष तक पंजाब में रहे और भक्ति मार्ग का प्रचार-प्रसार किया। बहोरदास द्वारा घुमान में बनाया गया संत नामदेव का मंदिर-गुरुद्वारा, आज भी संत नामदेव के राष्ट्र-कार्य की ध्वजा गर्व से फहरा रहा है।

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