प्रभावशाली व्यक्तित्व, प्रखर राष्ट्रवादी, माँ भारती का वीर सपूत, एक आम भारतीय सा, भीड़ में गुम हो जाने वाला सामान्य सा चेहरा। जिसके दुबले पतले शरीर में समाया हुआ था आकाश सा व्यक्तित्व, समुद्र सी गहरी सोच और समय पर परिवर्तन के पदचिन्ह छोड़ जाने की अदम्य क्षमता… ओजस्वी वक्ता और लेखक वर्ष 1857 की क्रान्ति को पहली बार प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम कहने वाले विनायक दामोदर सावरकर जिन्हें हम वीर सावरकर के नाम से भी जानते हैं। आज उनके नाम और कार्यों को लेकर संकुचित राजनीति और कुंठित मानसिकता से ग्रसित लोग स्वार्थ के चलते उनके योगदान का मजाक बनाने में तनिक भी संकोच नहीं करते हैं। उनके योगदान को नकारते हैं….और उन पर कटु टिप्पणी करने में उन्हें लज्जा नहीं आती।
यह वही वीर सावरकर है जिनके बारे में पूर्व प्रधानमन्त्री, भारतरत्न अटल बिहारी वाजपेयी जी ने कहा था सावरकर माने तेज, सावरकर माने त्याग सावरकर माने तप, सावरकर माने तत्व सावरकर माने तर्क, सावरकर माने तारुण्य। अगर हमें वीर सावरकर या उनके विचार को समझना है तो हमें उनके द्वारा लिखित पुस्तक, सिक्स ग्लोरियस इपोह ऑफ इण्डियन हिस्ट्री, जिसे हम भारतीय इतिहास के 6 स्वर्णिम अध्याय के रूप में भी जानते है, को पढ़ना होगा। जो भारत को लेकर वीर सावरकर के चिंतन का प्रमुख ग्रंथ है। यह विशाल ग्रंथ उनकी उस पीड़ा और छटपटाहट की अभिव्यक्ति है जिसमें स्पष्ट होता है कि वह अपने महान वैभवशाली राष्ट्र की पराधीनता और पतन से कितने व्यथित थे ।
स्वतन्त्रता के लिए लड़े गए वीरतापूर्वक युद्ध का इतिहास वीर सावरकर के लिए स्वर्णिम इतिहास है। पुस्तक के प्रथम अध्याय में वीर सावरकर ने विदेशियों के द्वारा किए गए पहले आक्रमण का वर्णन किया… वह लिखते है कि तत्कालीन भारत में अनेक गणराज्य थे जिनका संविधान प्रजातांत्रिक प्रणाली का होता था, कुछ राज्य ऐसे भी थे जो राजतंत्रात्मक प्रणाली के थे। भारतीय वीरों के द्वारा सिकंदर की सेना का प्रतिकार करने से लेकर महान गुरु चाणक्य के सानिध्य में सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के द्वारा भारत को भौगोलिक एवं सांस्कृतिक रूप से एक राष्ट्र के रूप में प्रतिष्ठित कैसे किया गया, यह प्रथम पुण्य अध्याय का निहित सन्देश है।
ग्रंथ के द्वितीय अध्याय को उन्होंने यवनों को धूल चटाने वाले महान सम्राट पुष्यमित्र को समर्पित किया है। सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के देहांत के पश्चात उनके पुत्र सम्राट बिंदुसार ने भव्य भारत के निर्माण का कार्य जारी रखा। भगवान् बुद्ध की अहिंसा धर्म की शिक्षा के प्रभाव भारतीय समाज में वीर वृत्ति समाप्त हो गई और लाभ उठाकर यवन प्रभावी होने लगे। तब किस प्रकार एक युवा सेनापति पुष्यमित्र ने वैदिक विधि विधान से अपना राज्य अभिषेक कर राष्ट्रीय धर्म का पालन किया था इसका वर्णन द्वितीय अध्याय में मिलता है।
तृतीय अध्याय में उन्होंने शक और कुषाणों का अन्त करने वाले सम्राट विक्रमादित्य के काल का वर्णन किया है। वह लिखते हैं कि शक और कुषाण बलूचिस्तान के प्रदेश से होते हुए प्रचंड वेग से भारत में टिड्डी दल की भांति घुस आए और काठियावाड़ और गुजरात प्रांत में फैल गए, जिन्हें सम्राट विक्रमादित्य ने बुरी तरह से पराजित कर भारत भूमि से खदेड़ दिया था।
गुप्तकालीन सम्राट कुमारगुप्त के पराक्रमी पुत्र स्कंदगुप्त के नेतृत्व में हूणों का संहार किया गया। आने वाले अनेक वर्षों तक इन शत्रुओं ने भारत की ओर देखने का साहस भी नहीं किया।
स्कदगुप्त की मृत्यु के पश्चात एक वीर योद्धा यशोवर्मन राष्ट्र रक्षा के लिए सामने आया। राजा यशोवर्मन के नेतृत्व और पराक्रम से अभूतपूर्व विजय का नाद पूरे भारत में गूंजने लगा। ऐसे वीरों के कारण भारत भूमि अपनी संस्कृति और सनातन वैदिक धारा को अक्षुण्ण रख पाई है। इसलिए वीर सावरकर ने भारतीय इतिहास के इन गुमनाम नायकों को अपनी पुस्तक के चतुर्थ स्वर्णिम अध्याय में स्थान दिया।
पांचवें अध्याय में वीर सावरकर ने महाराष्ट्र की भूमि से हिंदु संस्कृति के संवाहक भगवा ध्वज के उत्थान के विषय में बताया है। इस्लामी शत्रुओं की महत्वाकांक्षा तो हिंदू राष्ट्र की राजसत्ता छीन कर पूरे भारत में मुस्लिम साम्राज्य स्थापित करना थी। हिंदू धर्म और हिंदुत्व को नष्ट कर तलवार के बल पर इस्लाम को पूरे भारत पर लादने के लिए समस्त एशिया के मुसलमान आक्रमणकारी अनेक राष्ट्रों से बाहर निकलकर अनेक शतकों तक भारत पर लगातार आक्रमण करते रहे थे। मुस्लिम आक्रमणों के साथ ही ईसाईयों के आगमन की विपत्ति भी भारत पर आई। सिंध के राजा दाहिर पर पहले मुस्लिम आक्रमण से लेकर, राजा जयपाल और अनंगपाल, सोमनाथ मंदिर पर महमूद गजनवी का आक्रमण, पुजारियों के आह्वान पर हजारों हिंदुओं का दूर-दूर से शस्त्र लेकर मंदिर की रक्षा के लिए दौड़े चले आना जो न तो किसी राजा के लिए युद्ध कर रहे थे, सभी सनातन धर्म की रक्षा के लिए लड़ने वाले हिंदू धर्मवीर थे। मतान्तरण से राष्ट्र खतरे में पड़ जाता है इसका विवेचन वीर सावरकर ने इस अध्याय में किया है।
पुस्तक के छठे अध्याय में वीर सावरकर ने भारतीयों की राष्ट्र भक्ति, धर्म निष्ठा से युक्त होकर राष्ट्र के लिए सर्वस्व बलिदान करने की सतत चेतना का उल्लेख किया है। अंग्रेजों की भारतीयों के प्रति कूटनीति और उनका शोषण, भारत की संस्कृति को विद्रूप करने का अंग्रेजों का षड्यंत्र और स्वयं वीर सावरकर के द्वारा स्वतंत्रता के लिए किए गए प्रयासों और अंग्रेजों द्वारा उनको दी गई सजाओं का भी वर्णन किया है। ब्रिटिश काल में किस प्रकार से मुसलमानों ने मुस्लिम बहुलता के आधार पर अपने लिए अलग राज्य की मांग रखी, तथा आजादी मिलने पर देश का दुर्भाग्य पूर्ण विभाजन भी हुआ।
अपनी पुण्य भूमि भारत माता के लिए अपना सर्वस्व अर्पित करने वाले अनगिनत वीरों के प्रयासों से ब्रिटिश तंत्र को पराजय का मुंह देखना पड़ा और भारत ने संपूर्ण विश्व को यह दिखा दिया कि जिस ब्रिटिश राज्य का सूर्य अस्त नहीं होता है, उसे भारत की मिट्टी की सौगंध खाकर वीरों ने झुठला दिया था। ब्रिटिशराज भारत से समाप्त हुआ। 18 पृष्ठों में लिखे गए इस अंतिम अध्याय में वे हिंदू राष्ट्र की स्वतंत्रता एवं 200 वर्ष लंबे स्वातंत्र्य समर पर प्रकाश डालते हैं।
यह पुस्तक भारत के ‘स्व’ और भारतभूमि की अस्मिता का परिचय कराने वाला एक महान दस्तावेज है जिसे प्रत्येक भारतीय को अवश्य पढ़ना चाहिए।