चमोली। दुल्हन हो और डोली का जिक्र न हो, तो सब कुछ अधूरा लगता है। दुल्हन को उसके जीवन के बेहद खास दिन डोली में बैठाकर विदाई देने की परंपरा न जाने कब से हमारे रीति- रिवाजों का हिस्सा है, लेकिन उत्तराखंड के चमोली के कुछ गांवों में दुल्हन डोली में नहीं बल्कि घोड़े पर सवार होकर ससुराल जाती है। इस खास रिवाज के पीछे कुछ पौराणिक मान्यताओं के साथ ही राज्य के सीमांत पहाड़ी जिलों में मुश्किल जनजीवन की तस्वीर भी नजर आती है।

किसी भी लड़की का दुल्हन बनकर अपने माता-पिता के घर से विदा होना बहुत ही भावनात्मक होता है। शादी की आम परंपराओं के बीच हर दुल्हन का सपना होता कि उसकी डोली/पालकी में विदाई होगी। आमतौर पर उत्तराखंड के गांवों में यह आज भी देखने को मिलता है, लेकिन इसके उलट चमोली जिले के ईरानी गांव की दुल्हनों का डोली में विदाई का सपना कभी पूरा नहीं हो पाता। इस गांव की लड़कियों की विदाई घोड़े पर होती हैं। स्थानीय लोगों के अनुसार मान्यता है कि उत्तराखंड मां नंदा का क्षेत्र है इस कारण यहां मां नंदा को सर्वश्रेष्ठ स्थान दिया जाता है। इसलिए डोली या पालकी में केवल मां नंदा का भ्रमण होता है। इन्हीं मान्यताओं के चलते शादियों में विदाई के दौरान दुल्हन को घोड़े पर विदा किया जाता है।



वांण गांव की में भी यही मान्यता
वांण गांव की विशेष परंपरा के अनुसार ग्रामीण मां नंदा देवी को डोली में बिठाकर श्री नंदा देवी राजजात यात्रा में कैलाश ले जाते हैं, इसलिए अपनी आराध्य मां नंदा के सम्मान में ग्रामीण अपनी बेटियों को शादी के बाद डोली के बजाय घोड़े पर बैठाकर विदा करते हैं। इसके अलावा मां नंदा को सर्वोच्च स्थान देने वाले राज्य के अन्य कुछ गांवों में भी इसी तरह से दुल्हन की विदाई होती है।

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