सुप्रीम कोर्ट में समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्याता देने की मांग करने वाली याचिकाओं पर सुनवाई हो रही है. इस बीच 121 पूर्व जजों, छह पूर्व राजदूतों समेत 101 पूर्व नौकरशाहों ने समलैंगिक विवाह के मुद्दे पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को पत्र लिखा है. इस पत्र में कहा गया है कि सेम सेक्स के लोगों की शादी को क़ानूनी वैधता प्रदान करने की कोशिशों से उन्हें धक्का पहुंचा है. अगर इसकी अनुमति दी गई, तो पूरे देश को इसकी क़ीमत चुकानी होगी. हमें लोगों के भले की चिंता है.
परिवार और समाज नाम की संस्थाएं नष्ट हो जाएंगी
पत्र में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट को यह बताया जाना चाहिए कि नई लकीर खींचने की सांस्कृतिक नुक़सान पहुंचाने वाली इस पहुंच का क्या असर होगा? हमारा समाज सेम सेक्स यौन संस्कृति को स्वीकार नहीं करता. विवाह की अनुमति देने पर यह आम हो जाएगी. हमारे बच्चों का स्वास्थ्य और सेहत ख़तरे में पड़ जाएगा. इससे परिवार और समाज नाम की संस्थाएं नष्ट हो जाएंगी. इस बारे में कोई भी फ़ैसला करने का अधिकार केवल संसद को ही है, जहां लोगों के प्रतिनिधि होते है. अनुच्छेद 246 में विवाह एक सामाजिक क़ानूनी संस्थान है, जो केवल सक्षम विधायिका द्वारा ही रचित, स्वीकृत और क़ानूनी मान्यता प्रदान हो सकता है.
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समलैंगिक विवाह के मुद्दे को संसद पर छोड़ने की अपील
इससे पहले केंद्र सरकार ने बुधवार को उच्चतम न्यायालय में कहा कि अदालत न तो कानूनी प्रावधानों को नये सिरे से लिख सकती है, न ही किसी कानून के मूल ढांचे को बदल सकती है, जैसा कि इसके निर्माण के समय कल्पना की गई थी. केंद्र ने न्यायालय से अनुरोध किया कि वह समलैंगिक विवाहों को कानूनी मंजूरी देने संबंधी याचिकाओं में उठाये गये प्रश्नों को संसद के लिए छोड़ने पर विचार करे.
समलैंगिक शादियों के समर्थन में उतरा ये समूह
लॉ स्कूल के छात्रों के 30 से अधिक एलजीबीटीक्यूआईए++ समूहों ने बार काउंसिल ऑफ इंडिया (बीसीआई) के उस प्रस्ताव की निंदा की है, जिसमें उच्चतम न्यायालय से समलैंगिक शादियों को कानूनी मान्यता देने का अनुरोध करने वाली याचिकाओं पर सुनवाई न करने की अपील की गई है. इन समूहों ने बीसीआई के इस प्रस्ताव को ‘संविधान विरोधी’ करार दिया है. इससे पहले सुप्रीम कोर्ट में समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्याता देने की मांग करने वाली याचिकाओं पर हो रही सुनवाई के बीच केंद्रीय विधि मंत्री किरेन रीजीजू ने कहा कि विवाह संस्था जैसा महत्वपूर्ण मामला देश के लोगों द्वारा तय किया जाना है और अदालतें ऐसे मुद्दों को निपटाने का मंच नहीं हैं.
समय की मांग