भगवान भोले नाथ के प्रिय माह सावन (Sawan) की शुरुआत हो गई है। सावन की शुरुआत के साथ ही कांवड़ यात्रा (Kanwar Yatra) का आगाज भी हो गया है। सावन का महीना शुरू होते ही भोलेनाथ के भक्त बड़ी संख्या में कांवड़ यात्रा लेकर अपने आराध्य की आराधना करने के लिए निकल पड़ते हैं। हर कोई शिव की भक्ति में लीन हो जीता है। शिवभक्त नंगे पांव हाथ में कांवड़ लेकर बाबा धाम जाते है और गंगा की पवित्र नदी से उनका जलाभिषेक करते हैं।
हिंदू पंचांग के अनुसार, सावन का पवित्र महीना हर वर्ष श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि से आरंभ होता है। इस बार आज मंगलवार से सावन मास की शुरुआत हो रही है। पुरषोत्तम मास होने की वजह से इस बार सावन का महीना पूरे 2 महीने का होने वाला है, जिसके कारण शिव भक्तों को भोलेनाथ की आराधना का अधिक समय मिलने वाला है।
क्या होती है कांवड़ यात्रा?
हर वर्ष सावन के महीने में महादेव के भक्त नंगे पैर कांवड़ यात्रा निकालते हैं, जिसमें पवित्र नदी गंगा का जल लेकर शिवालय जाते हैं और वहां पर भोलेनाथ का जलाभिषेक किया जाता है. यह एक तीर्थ यात्रा के समान होती है, जो सावन के पूरे महीने चलती है. कांवड़ यात्रा भगवान भोलेनाथ को प्रसन्न करने और उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए निकाली जाती है. कांवड़ यात्रा चार प्रकार की होती हैं.
इस बार दो माह तक
इस बार सावन एक महीना का नहीं बल्कि दो महीना का होगा। शिव भक्ति का ये माह बहुत ही पावन महिना होता है। हर सावन में चार या पांच सोमवार ही पड़ते थे और शिवभक्त भगवान भोले की पूजा अर्चना करते थे. लेकिन इस बार सावन में आठ सोमवार पड़ेंगे। इसलिए इस बार दो महीने तक शिव भक्ति की बयार बहती रहेगी। इस दौरान शिव जी का अभिषेक, रुद्राभिषेक, जलाभिषेक, गंगा जल से अभिषेक किया जाएगा. साथ ही भक्त गंगा से कावंड भरकर भी लाएंगे और शिवजी को गंगा जल अर्पित करेंगे। इस माह में शिव जी पर अगर जल चढ़ाया जाए तो माना जाता है कि भोलेनाथ आपकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं।
कावड़ यात्रा प्रारंभ तिथि
इस साल कावड़ यात्रा 4 जुलाई 2023, मंगलवार के दिन शुरु होगी।
कावड़ यात्रा का समापन 31 अगस्त 2023, गुरुवार के दिन होगा।
कांवड़ यात्रा का इतिहास
कांवड़ यात्रा का इतिहास भगवान परशुराम के समय से जुड़ा हुआ है। भगवान परशुराम शिव जी के परम भक्त थे। मान्यता है कि एक बार वे कांवड़ लेकर उत्तर प्रदेश स्थित पुरा महादेव गए थे। उन्होंने गंगा जल लेकर भोलेनाथ का जलाभिषेक किया था, उस समय श्रावण मास चल रहा था। तब से श्रावण के महीने में कांवड़ यात्रा निकालने की परंपरा शुरू हो गई।
दूसरी मान्यता समुद्र मंथन से जुड़ी हुई है। समुद्र मंथन भी श्रावण मास में ही हुआ था। मंथन से निकले विष को सृष्टि की रक्षा के लिए भगवान शिव ने अपने कंठ में समाहित किया था। जिससे उनका गला नीलवर्ण हो गया और वही नीलकंठ महादेव कहलाए। विष की गर्मी को शांत करने के लिए देवी-देवताओं ने विभिन्न नदियों का जल लाकर भगवान शिव पर चढ़ाया और इसी के साथ कांवड़ लाकर भगवान शिव को अर्पित करने की परंपरा शुरू हुई।
तीसरी मान्यता के अनुसार, सबसे पहले त्रेतायुग में श्रवण कुमार ने श्रावण मास में अपने माता-पिता की इच्छा पूरी करने के लिए कांवड़ यात्रा की थी। वे माता-पिता को कांवड़ में बैठाकर हरिद्वार ले गए थे। वहां उन्होंने माता पिता को गंगा में स्नान करवाया और लौटते समय श्रवण कुमार गंगाजल लेकर आए, जिसे उन्होंने माता-पिता के साथ शिवलिंग पर चढ़ाया और तबसे यात्रा की शुरुआत हुई।